संसार से धार्मिक अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करने का क्या कोई उपाय है?
विगत दो या तीन शताब्दियों में देश व दुनियां में विज्ञान ने अभूतपूर्व उन्नति की है। आज से दो सौ साल पहले किसी ने सोचा भी न था कि कभी हमारे देश या संसार में बैलगाड़ी व तांगे का युग समाप्त होगा और साईकिल, पेट्रोल से चलने वाले स्कूटर वा मोटरसाइकिल, कार, रेल, भूमिगत मैट्रो, समुद्र व नदियों में चलने वाले नाना प्रकार के जहाज व नौकायें, नाना प्रकार के छोटे व बड़े वायुयान, मोबाइल व कम्प्यूटर आदि इस देश व संसार में निर्मित होंगे जिससे लोगों को अपूर्व इन्द्रिय व शारीरिक सुख मिलेगा। समय चलता रहा है, एक-एक करके छोटी-बड़ी वैज्ञानिक खोजें होती रही। इन खोजों से नये-नये उपयोग की वस्तुयें, उपकरण व चमत्कारिक उपयोगी यन्त्र आदि बनते गए दूसरी ओर मनुष्यों को कुछ ही क्षणों में विनाश करने में सक्षम हथियार व सामग्री भी तैयार की गई। भाषाओं का भी जो स्वरूप 100 से 200 वर्ष पूर्व था वह भी निखरता रहा है और देश व दुनियां की सभी भाषाओं के रूप-स्वरूप बोल-चाल-लेखन, परिधान, व्यवहार तथा प्रकाशन आदि दृष्टि से क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। इतना सब कुछ होने पर भी ज्ञान व शिक्षा में वृद्धि तो हुई परन्तु क्या संसार से धार्मिक व सामाजिक जगत का अज्ञान व अन्धकार कम हुआ है? हमारा अनुमान है कि समय के साथ-साथ धार्मिक व सामाजिक अज्ञान वा अन्धविश्वासों में वृद्धि ही हुई है तथा मनुष्यों के व्यवहारों व जीवन में नैतिक व चारित्रिक गिरावट आई है। इसे आधुनिक काल का सबसे बड़ा महान आश्चर्य या विडम्बना भी कह सकते हैं।
धार्मिक अन्धविश्वासों से हमारा अभिप्राय है कि सभी मतों व धर्मों में ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरूप विद्यमान नहीं है। ईश्वर के सत्यस्वरूप के स्थान पर ईश्वर के स्वरूप सम्बन्धी मान्यताओं में सभी मतों व संस्थाओं में अन्तर व भेद हैं। इन मतों में ईश्वर संबंधी परस्पर विरोधी विचार व मान्यतायें प्रचलित हैं जो बढ़ तो रही हैं परन्तु किसी भी मत का ध्यान अपनी अज्ञानपूर्ण मिथ्या मान्यताओं व विश्वासों को दूर करने की ओर नहीं है। यह स्थिति अत्यन्त विस्मयकारी है। हमारे देश में लोग ईश्वर को न जानते हैं न जानने का प्रयास करते हैं। ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा की जाती है। बताया जाता है कि ईश्वर का अवतार होता है। श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी को ईश्वर का अवतार बताया जाता है परन्तु इसे तर्क, प्रमाण, युक्ति आदि से सिद्ध नहीं किया जाता। यदि मूर्तिपूजा सत्य होती तो यह सनातन अर्थात् सृष्टि के आरम्भ से होती। परन्तु ऐसा नहीं है। मूर्तिपूजा का इतिहास बौद्ध व जैनमत के प्रादुर्भाव व उसके बाद से आरम्भ होता है। इन मतों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इनका अनुकरण कर ही मूर्तिपूजा का हिन्दू मत या धर्म में प्रचलन हुआ है। यदि ऐसा न हुआ होता तो वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति, दर्शन, उपनिषद, महाभारत व बाल्मिीकी रामायण आदि सभी प्राचीन ग्रन्थों में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने चाहिये थे परन्तु इन ग्रन्थों में मूर्तिपूजा संबंधी उल्लेख व प्रमाण नदारद हैं। इसका कारण बौद्ध व जैन मत से ही मूर्तिपूजा का आरम्भ हुआ है, यह बात पुष्ट होती है। बौद्ध व जैन मत से पूर्व मूर्तिपूजा भारत में नहीं होती थी। पुराणों में मूर्तिपूजा का स्पष्ट उल्लेख है। इससे यह सभी पुराण बौद्ध व जैन मत की स्थापना के वर्षों बाद बनें, यह स्पष्ट संकेत मिलता है। अनेक पुराणों में कुछ ऐतिहासिक विवरण मिलते हैं जो बौद्ध व जैन मत के प्रादूर्भाव के बाद के हैं इससे तो स्पष्ट ही सिद्ध हो जाता है कि इनका निर्माण उनके नाम के अनुरूप प्राचीन न होकर अर्वाचीन है। संसार में लोग अपना नाम लक्ष्मीचन्द्र रख लेते हैं परन्तु घोर निर्धन होते हैं। विदेशों में भी मत-मतान्तरों को देखें तो वहां भी भारत की ही तरह नाना प्रकार के अन्धविश्वास, छल-कपट-अज्ञान-हिंसा आदि का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
यह तर्क संगत व प्रमाणित तथ्य है कि ईश्वर सर्वव्यापक व निराकार तत्व है जो कि अजन्मा है। जिसे शरीरयुक्त जन्म मिलता है वह जीवात्मा होता है। यह जीवात्मा एकदेशी व जन्म-मरण आदि दुःखों का भोक्ता होने के कारण अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान व बुद्धि वाला होता है। इसलिये संसार में सभी जन्मधारी अल्पज्ञ जीवात्मायें मनुष्य व पशु-पक्षी आदि प्राणियों के रूप में जन्म लेते हैं। अल्पज्ञ जीवात्मा से युक्त मनुष्य व महात्मा वा महापुरूष कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें परन्तु वह निभ्र्रान्त कभी नहीं हो सकता। उसकी कुछ बातें सत्य व कुछ बातें मिथ्या व अन्धविश्वास पूर्ण भी हो सकती हैं। परन्तु देशी विदेशी सभी मत प्रवर्तक अपने गुरूओं व प्रवर्तकों को अल्पज्ञ व मरणधर्मा मानने को तैयार नहीं होते। प्रायः सभी मताचार्यों ने तरह-तरह की कहानियां व किस्से बना रखे होते हैं जिससे वह अपने-अपने अनुयायियों को भ्रान्तिजाल में फंसा कर रखते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। महर्षि दयानन्द 1825-1883 का ध्यान शायद पहली बार इस ओर गया और इन्होंने धार्मिक सत्य मान्यताओं का प्रचार किया और सभी मतों व धर्मो की मिथ्या मान्यताओं का तर्कपूर्ण विवेचन किया जैसा कि वैज्ञानिक करते हैं तथा जिसे खण्डन करना भी कहा जाता है परन्तु इसका उद्देश्य तत्वज्ञान है। महर्षि दयानन्द ने सत्य के बोध व असत्य का ज्ञान कराकर सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग के लिए मत-पन्थों की मान्यताओं की समीक्षा, आलोचना वा खण्डन-मण्डन का अपूर्व कार्य किया जिससे मानव जीवन असत्य से पृथक होकर जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो सके। यह उनकी मानवता को बहुत बड़ी देन है।
महर्षि दयानन्द ने गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती से मथुरा में शिक्षा प्राप्त की। स्वामी विरजानन्द जी वैदिक व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त प़द्धति से व्याकरण पढ़ाते थे। उन दिनों यह पद्धति लुप्त प्रायः हो गई थी और अन्यत्र अनार्ष व्याकरण का अध्ययन कराया जाता था। आर्ष व्याकरण को पढ़ने व समझने पर शास्त्रों के यथार्थ अर्थ समझ में आ जाते हैं। संसार में मुख्यतः संस्कृत में तीन प्रकार की रचनायें हैं। पहली ईश्वर कृत जिसमें चार वेद आते हैं, दूसरी वेद मर्मज्ञ ऋषियों व मुनियों के ग्रन्थ जिसमें ब्राह्मण, ज्योतिष, कल्प, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सुश्रुत व चरक के आयुर्वेद चिकित्सकीय आदि ग्रन्थ तथा महाभारत व रामायण इतिहास ग्रन्थ हैं तथा तीसरी श्रेणी में ऋषियों से इतर मनुष्यों द्वारा रचित अनार्ष ग्रन्थ। वेद ईश्वरकृत होने से स्वतः प्रमाण है। ऋषियों के ग्रन्थ भी प्रमाण कोटि में आते यदि वह वेदानुसार व वेदानुकुल हों। अन्य ग्रन्थ यदि वह वेद सम्मत व वेदानुकूल हैं तभी उनका प्रमाण स्वीकार होता है। इन ग्रन्थों के लेखकों का ऋषित्व प्राप्त न होने से यह ग्रन्थ उसी सीमा तक प्रमाणिक होते जहां तक यह वेदानुकूल हों। पुराण ग्रन्थ इस कोटि में नहीं आते। इन ग्रन्थों की अविश्वसनीय, सृष्टि कर्म के विरुद्ध, तर्क व युक्ति विरुद्ध बातें अप्रमाणिक श्रेणी में आती हैं। महर्षि दयानन्द को यह कसौटी स्वामी विरजानन्द व अपनी ऊहा से प्राप्त हुई थी जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया।
सबसे पहले महर्षि दयानन्द ने पूजा पद्धति को लिया और ईश्वर के ध्यान के लिए ‘सन्ध्या’ जिसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के साथ आचमन, इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण, मनसापरिक्रमा, उपस्थान और समर्पण आदि के मन्त्र हैं, इनसे विभूषित ‘सन्ध्या ग्रन्थ’ की रचना कर उसका प्रचार व प्रसार किया। इसके बाद उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, स्त्री व शूद्रों का अध्ययन-अध्यापन आदि में अधिकार-अनधिकार पर भी वेद के आलोक में विचार व चिन्तन किया और इसका वेदानुसार समाधान किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध आदि अवैदिक कृत्य होने से त्याज्य हैं। ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना व अग्हिोत्र आदि की विधि भी उन्होंने लिखकर प्रचारित की जो कि वेद और योगदर्शन एवं अन्य ऋषियों-मुनियों के ग्रन्थों के अनुरुप है। महर्षि दयानन्द का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है जिसमें प्रथम उन्होंने ईश्वर एक है का प्रतिपादन किया है और उसके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप सम्बन्ध सूचक 100 नामों की व्याख्या कर बताया कि एक ईश्वर के अनेक गुणों व सम्बन्धों आदि के आधार पर अनेक नाम होते हैं। दूसरे समुल्लास मु मुख्यतः बालशिक्षा, तीसरे में अध्ययन-अध्यापन आदि, चतुर्थ में समावर्तन, विवाह, गृहस्थाश्रम, पंच-महायज्ञ, पुनर्विवाह, नियोग आदि की विस्तार से प्रमाणों सहित चर्चा की है। पांचवा समुल्लास वानप्रस्थ व संन्यास की प्रासंगिकता आदि पर है। षष्ठ समुल्लास मुख्यतः राजधर्म व इससे जुड़े अनेक विषयों पर प्रकाश डालता हे। सातवें समुल्लास ईश्वर विषय, जीवों की स्वतन्त्रता तथा वेद विषय पर केन्द्रित है। आठवें समुल्लास में सृष्टियुत्पत्ति, सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति, मनुष्य की प्रथम आदि सृष्टि के स्थान का निर्णय तथा ईश्वर द्वारा जगत का धारण आदि विषय सम्मिलित हैं। नवम् समुल्लास विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष विषय पर है तथा दसवां आचार, अनाचार, भक्ष्य व अभक्ष्य विषय पर है। इसके पश्चात 11 से 14 तक 4 समुल्लास आर्यावत्र्तीय मतों, बौद्ध व जैन मत, ईसाई मत एवं इस्लाम मत की समीक्षा में लिखे गये हैं जिससे लोगों को मत-मतान्तरों की सत्य व असत मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान हो सके। महर्षि दयानन्द ने एक ओर जहां विशाल साहित्य का निर्माण किया और धर्म व समाज संबंधी सभी प्रश्नों के उत्तर दिये वहीं उन्होंने सभी मतों के लोगों से वार्तालाप, शंका समाधान, शास्त्र चर्चा व शास्त्रार्थ, पत्र व्यवहार, वेदों का भाष्य आदि नाना प्रकार के कार्यों सहित पूरे देश का भ्रमण कर स्थान-स्थान पर उपदेश व प्रवचन किये। यदि वह अधिक जीवित रहते तो सम्भव था कि वह वेदों के बाद दर्शनों आदि का भी भाष्य करते। सम्प्रति यह सभी कमियां आर्य विद्वानों ने पूरी कर दी हैं। अब धार्मिक अज्ञान व अन्धविश्वास मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द प्रोक्त विचारधारा व उनके साहित्य का अधिक से अधिक प्रचार करने का समय है। यह तो सम्भव है कि मार्ग में अनेक रूकावटे व समस्यायें आएंगीं परन्तु धीरे-धीरे सफलता मिलना भी आरम्भ हो जायेगा। यदि सत्य का प्रचार करने से सफलता न मिलती होती तो फिर अनादि काल से कोई भी ऋषि-मुनि-विद्वान सत्य का प्रचार क्यों करता? सफलता मिलती है, इसीलिए प्रचार किया जाता हैं। हां, सत्य की ही तरह असत्य का प्रचार किया जाये तो उसे भी आंशिक सफलता मिलती है और मिली है। इतिहास में इसके प्रमाण उपस्थित है क्योंकि साधारण मनुष्य किसी मान्यता व सिद्धान्त को अपनाने से पहले उस मान्यता व सिद्धान्त की तर्क व प्रमाणों से पुष्टि नहीं करता। अतः सत्य के प्रचारकों को सत्य धर्म का प्रचार ईश्वर का कार्य व उसकी आज्ञा मानकर करना चाहिये।
चूम लेती सफलता सत्य के उस प्रचारक के चरणों को।
जो अपनी जान हथेली पर रखकर सत्य का प्रचार करता है।।
इसका यदि उदाहरण चाहो तो महर्षि दयानन्द का जीवन देखो।
और चाहो तो लेखराम, गुरूदत्त, राजपाल और श्रद्धानन्द को जानों।
शहीद हो गये यह धर्म प्रेमी सत्य वैदिक धर्म के प्रचार के लिए।
आज भी इनका यश विश्व भर में गाते हैं सभी सद्धर्मी बन्धु।।
महर्षि दयानन्द ने ईश्वर, जीवात्मा व जड़ प्रकृति के सत्य स्वरूप पर प्रकाश डाला है और सभी धार्मिक शंकाओं का युक्तिसंगत समाधान किया है जो निष्पक्ष भाव व शुद्ध मन से पढ़ने योग्य है। इनके अध्ययन से ही अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर किया जा सकता है। यही एक मार्ग है जीवन के उद्देश्य पर पहुंचने का, अन्य कोई मार्ग नहीं है।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख ! अंधविश्वासों को दूर करने का एक मात्र उपाय सही शिक्षा देना है।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी।
मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा . वहमों भरमों अन्ध्विशासों ने भारत को शर्मनाक हालात तक बर्बाद किया हुआ है लेकिन लोग समझते ही नहीं , कारण ? बच्चा पैदा होते ही धर्म का एक गलत सोच वाला इंजेक्शन लगा देते हैं , बस फिर यह हमारे खून में रच जाता है . इसी से दुखी हो कर तर्कशील लहर का जोर बड़ता जा रहा है . अगर बुध की जिंदगी देखें तो कुछ और दीखता है लेकिन उन के फालोवर लोगों ने कुछ और ही बना दिया . मानता हूँ धर्म के सही रास्ते पर चलने वाले लोगों की कमी नहीं है लेकिन जो आज हो रहा है उस को लिखने की जरुरत नहीं पड़ती .
सही बात, भाई साहब !
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी बात सत्य है। अज्ञान और स्वार्थ में सभी मत व उनके अनुयायी फंसे हुए हैं। इन्हे दूर करने के प्रयास किसी भी मत में हो रहा हैं, दिखाई नहीं देता। अतः यह अज्ञान व स्वार्थ फिलहाल समाप्त होने वाले नहीं है. अभी तो अज्ञान व अंधविश्वास से ग्रसित सभी मत यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि उनके मत में यह बातें हैं। धन्यवाद।