ग़ज़ल
वो मिरे सीने से आख़िर आ लगा
मर न जाऊं मैं कहीं ऐसा लगा
रेत माज़ी की मेरी आँखों में थी
सब्ज़ जंगल भी मुझे सहरा लगा
खो रहे हैं रंग तेरे होंट अब
हमनशीं ! इनपे मिरा बोसा लगा
लहर इक निकली मेरे पहचान की
डूबते के हाथ में तिनका लगा
कर रहा था वो मुझे गुमराह क्या?
हर क़दम पे रास्ता मुड़ता लगा
कुछ नहीं..छोड़ो ..नहीं कुछ भी नहीं ..
ये नए अंदाज़ का शिक़वा लगा
गेंद बल्ले पर कभी बैठी नहीं
हर दफ़ा मुझसे फ़क़त कोना लगा
दूर जाते वक़्त बस इतना कहा
साथ ‘कान्हा’ आपका अच्छा लगा
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल ! आप अच्छे ग़ज़लकार सिद्ध होंगे !
Bahut Shukriya
Prakhar Malviya Kanha