गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

वो मिरे सीने से आख़िर आ लगा
मर न जाऊं मैं कहीं ऐसा लगा

रेत माज़ी की मेरी आँखों में थी
सब्ज़ जंगल भी मुझे सहरा लगा

खो रहे हैं रंग तेरे होंट अब
हमनशीं ! इनपे मिरा बोसा लगा

लहर इक निकली मेरे पहचान की
डूबते के हाथ में तिनका लगा

कर रहा था वो मुझे गुमराह क्या?
हर क़दम पे रास्ता मुड़ता लगा

कुछ नहीं..छोड़ो ..नहीं कुछ भी नहीं ..
ये नए अंदाज़ का शिक़वा लगा

गेंद बल्ले पर कभी बैठी नहीं
हर दफ़ा मुझसे फ़क़त कोना लगा

दूर जाते वक़्त बस इतना कहा
साथ ‘कान्हा’ आपका अच्छा लगा

प्रखर मालवीय 'कान्हा'

नाम- प्रखर मालवीय कान्हा पिता का नाम - श्री उदय नारायण मालवीय जन्म : चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर 1991 को । वर्तमान निवास - दिल्ली शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम। सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , लफ़्ज़ , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ। 'दस्तक' और 'ग़ज़ल के फलक पर ' नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित। संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन। संपर्क : [email protected] ) 9911568839

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल ! आप अच्छे ग़ज़लकार सिद्ध होंगे !

  • प्रखर मालवीय 'कान्हा'

    Bahut Shukriya

    Prakhar Malviya Kanha

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