धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वाल्मीकि के राम और वैदिक धर्म

सृष्टि के आरम्भ से अब तक संसार के इतिहास में अगणित महापुरूष हुए हैं परन्तु ज्ञात पुरूषों में अयोध्या के राजा दशरथ पुत्र श्री राम चन्द्र जी का स्थान अन्यतम है। इसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण एवं विश्व इतिहास में हुए प्रसिद्ध महापुरूषों के जीवन चरित्र हैं। श्री राम चन्द्र जी के जीवन चरित्र लेखक महर्षि वाल्मीकि उनके न तो कृपा पात्र थे और न हि किसी प्रलोभनवश उन्होंने ऐतिहासिक महाकाव्य रामायण की रचना की थी। महर्षि वाल्मिीकि साक्षात्कृत-धर्मा आप्तपुरूष थे। उनका कोई भी कथन न तो अतिश्योक्तिपूर्ण है और न अप्रमाणिक, कल्पित व असत्य ही। ऋषि होने के कारण वह वेदों और वेदांगों के भी ज्ञानी थे, धर्म को वह अच्छी तरह से जानते थे और सत्य में ही उनकी निष्ठा व अवलम्बन था। अतः उनकी लेखनी से लिखा गया रामायण विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है, इसलिए कि यह संसार के सर्वश्रेष्ठ मर्यादापुरूषोत्तम मनुष्य का जीवन चरित्र होने के साथ विश्व साहित्य में साहित्यिक गुणों से भरपूर एवं महानतम है। । इसका एक कारण इसका विश्व की प्राचीनतम भाषा में होना, दूसरा कि महाकाव्य होना और तीसरा एक ऐसे चरित्र से संसार के लोगों का परिचय कराना जो धर्म का साक्षात रूप रहा हो। भारत को यह गौरव प्राप्त है कि उसके पास एक ऐसे मनुष्य का चरित्र है जिसके समान विश्व साहित्य में दूसरा चरित्र नहीं है।shri ram

श्री राम चन्द्र जी आदर्श ईश्वरभक्त, वेदभक्त, ऋषि परम्पराओं के अनुगामी, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई, विमाताओं का भी समान आदर करने वाले, आदर्श राजा, आदर्श मित्र और आदर्श शत्रु भी थे। वह सृष्टि के आदि में आरम्भ वैदिक धर्म को साक्षात धारण किये हुए महामानव थे। वैदिक धर्म के अनुरूप यदि किसी आदर्श व्यक्ति का उदाहरण देना हो तो मुख्यतः तीन प्रमुख नाम हमारे सम्मुख आते हैं जिनमें पहला मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी का है। अन्य दो नामों में योगेश्वर श्री कृष्ण व तीसरा नाम महर्षि दयानन्द का है। दुर्भाग्य है कि आज का आधुनिक संसार मत मतान्तरों में बंटा हुआ है। मत-मतान्तरों की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह अपने मत के ही व्यक्तियों को अच्छा मानते हैं व दूसरे मत के महान पुरूषों को भी यथोचित आदर नहीं देते। संसार के सभी मत व मजहब इतिहास के उस काल में उत्पन्न हुए जब संसार में घोर अज्ञान व अन्धविश्वास छाया हुआ था। इनका प्रभाव सभी मतों पर समान रूप से देखा जा सकता है। समय बदल गया परन्तु इन मतों के अज्ञान व अन्धविश्वास व सृष्टिक्रम के विपरीत धारणायें व मान्यतायें ज्यों की त्यों बनीं हुई हैं। इनमें जो ज्ञान वृद्धि व वेदों के प्रकाश में संशोधन अपेक्षित थे व हैं, वह न तो किये गये और न किये जाने की किसी में मंशा ही हैं। सभी मतों के लोग अपने मतों को पूर्णतः सत्य पर आधारित होने का ख्याल पाले हुए हैं। हम यह प्रस्ताव करते हैं कि यदि वह ऐसा मानते हैं तो फिर वह वेदाध्ययन कर वैदिक मान्यताओं की या तो कमियां बतायें अन्यथा वेदों को स्वीकार करें। वह यह दोनों ही कार्य नहीं करते वा करेंगे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मत-पन्थों का आधार सत्य पर है अथवा नहीं। इसके विपरीत महर्षि दयानन्द ने अपनी सभी मान्यताओं का आधार वेद और वैदिक साहित्य को बनाया और चुनौती दी कि या तो इन्हें स्वीकार करें या इनका खण्डन करें। महर्षि दयानन्द ने यह चुनौती वर्ष 1869 से आरम्भ कर अपने जीवन के सूर्यास्त 30 अक्तूबर, सन् 1883 तक जारी रखी परन्तु कहीं कोई वेदविरूद्ध मान्यता को सत्य सिद्ध नहीं कर सका और न ही वेदों की किसी बात को असत्य सिद्ध कर पाया। इससे क्या सिद्ध होता है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण 100 प्रतिशत सत्य धार्मिक व सामाजिक ज्ञान का ग्रन्थ होने के साथ विज्ञान का भी आधार है। संसार के सभी मनुष्यों को वेद को अपने शाश्वत् पिता-माता ईश्वर की वसीयत व विरासत समझ कर ग्रहण व धारण करना चाहिये और आचरण में लाना चाहिये, इसी में सबका कल्याण है।

हमारे बहुत से बन्धु श्री राम चन्द्र जी को ईश्वर का अवतार मानते हैं। अवतार अर्थात् अवतरण किसी के ऊंचे स्थान से नीचे आने को कहते हैं। ईश्वर अनादि सत्ता होने के साथ सर्वव्यापक, निराकार, अजन्मा, सर्वान्तरयामी है। वह जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म-मरण के चक्र में चलाता है। जन्म लेने वाली प्रत्येक सत्ता जीवात्मा होती है जिसका जन्म अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फलों को भोगने व नये अच्छे कर्मों को करने के लिए होता है। इसी प्रकार से हमारे देश के सभी ऋषि-मुनि व महापुरूषों के जन्म अपने पूर्व जन्मों के पाप-पुण्यों को भोगने के लिए ही हुए थे जिनमें से श्री रामचन्द्र जी भी एक थे। यही बात वाल्मीकि रामायण के अध्ययन से भी सिद्ध होती है। इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि श्री राम चन्द्र जी वेदों में ईश्वर द्वारा प्रेरित सभी मानवीय गुणों के सागर व साक्षात रूप थे परन्तु वह इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाने व चलाने वालें नहीं थे। यदि होते तो रावण आदि के वध के लिए उन्होंने जो किया उसकी आवश्यकता न होती। इसका कारण है कि जो सत्ता इस ब्रह्माण्ड को बनाकर अनन्त काल से चला रही है उसके लिए रावण जैसे ज्ञान व शक्ति सम्पन्न असुर प्रवृत्ति के मनुष्य का   प्राणहरण करना साधारण है। हम तो यह कहेंगे कि श्रीरामचन्द्र जी ने रावण को अपने पौरूष और शस्त्रों से पराभूत किया परन्तु रावण का प्राणहरण व उसकी जीवात्मा का शरीर से विच्छेदन तथा उसके पाप-पुण्य के अनुसार उसे नया जन्म देने का कार्य उस समय, उससे पूर्व व बाद में सर्व व्यापक परमेश्वर ने ही किया था व करता आ रहा है। उसके बाद अपने शेष जीवन में श्री राम चन्द्र जी ने मृत रावण की कोई चर्चा नहीं की। यदि वह जानते तो बताते कि रावण की मृत्यु के बाद उसकी क्या गति हुई। उसको उन्होंने किसी योनि में किस प्रकार का जन्म दिया।

इस सम्बन्ध में कुछ विस्तार से जानने के लिए हम आर्य जगत के विद्वान स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी के विचार कि क्या श्रीराम ईश्वर थे?, प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामीजी ने लिखा है कि ‘‘वेद में ईश्वर को अजन्मा, अशरीरी और नस-नाड़ी के बन्धन से रहित कहा गया है। उपनिषदों में भी ईश्वर को निराकार ही चित्रित किया गया है। जो सर्वव्यापक और सर्वदेशी है उसका अवतार कैसा? मर्यादापुरूषोत्तम राम न ईश्वर थे न ईश्वर के अवतार। हम यहां कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। रामायण के आरम्भ में ही जब महर्षि वाल्मिीकि ने नारद से पूछा कि इस समय संसार में धर्मात्मा, चरित्रवान् एवं प्रियदर्शन कौन है? तब उन्होंने मनुष्यों में ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति के सम्बन्ध में पूछा था-महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवं विधं नरम्? अर्थात् महर्षे ! आप ऐसे मनुष्य को जानने में समर्थ हैं?’ इससे यह स्पष्ट है कि महर्षि वाल्मीकि ने अपना काव्य एक महापुरूष के सम्बन्ध में लिखा है, ईश्वर के सम्बन्ध में नहीं। श्री राम स्वयं भी अपने को ईश्वर का अवतार नहीं मानते थे, देखिये–जब भरत श्री राम को लौटाने के लिए चित्रकूट में गये तब श्रीराम ने लौटने से इन्कार करते हुए उत्तर दिया– नात्मनः कामकारोऽस्ति पुरूषोऽयमनीश्वरः। अयो0 105/15’ अर्थात् हे भरत ! मनुष्य अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य ईश्वर नहीं है। 

सीताजी को रावण के बन्धन से मुक्त कर उन्होंने कहा–दैवसम्पादितो दोषो मानुषेणा मया जितः।युद्ध. 118/5 अर्थात् हे देवि ! तुझ पर जो दैवी विपत्ति आई थी उस पर मुझ मनुष्य ने विजय प्राप्त कर ली है।यहां राम ने अपने को मनुष्य कहा है। एक बार जब लोकपालों ने श्रीराम को ईश्वर का अवतार बताया तो उन्होंने कहा–आत्मनं मानुषं मन्ये राम दशरथात्मजम्। युद्ध. 110/11 अर्थात् मैं तो अपने को महाराज दशरथ का पुत्र एक मनुष्य ही मानता हूं।ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं–क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरूषविशेष ईश्वरः। योग दर्शन 1/24 अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेशइन पांच क्लेश, कर्मफल और वासनाओं के संसर्ग से रहित पुरूषविशेष ईश्वर है।यदि हम श्रीराम के जीवन को इस कसौटी पर कसें तो वे ईश्वर सिद्ध नहीं होते। वे क्लेशों से युक्त थे और उन्होंने अपने आप को फलों का भोक्ता भी स्वीकार किया है। वन में सीता को खोजते हुए दुःखी होकर विलाप करते हुए वे लक्ष्मणजी से कहते हैं– पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि पापानि कर्माण्यसकृत् कृतानि। तत्रायमद्य पतितो विपाको, दुःखेन दुःखं यदहं विशामि।। अरण्य. 63/4 अर्थात् हे लक्ष्मण ! निश्चय ही पूर्वजन्म में मैंने अनेक पाप किये थे। उसी का परिणाम है कि मुझे दुःख के पश्चात् दुःख प्राप्त हो रहे हैं।श्रीराम प्रतिदिन सन्ध्या किया करते थे। यदि वे ईश्वर थे तो संध्या किसकी करते थे? श्रीराम का नित्य सन्ध्या एवं जप करना यह सिद्ध करता है कि वे ईश्वर नहीं थे। रामायण के सुप्रसिद्ध विद्वान आनरेबल श्रीनिवासजी शास्त्री ने भी लिखा है–”To me Shri Ram is not divine.” अर्थात् मैं श्रीराम को ईश्वर नहीं मानता। पाठक पूछ सकते हैं कि यदि श्रीराम भगवान् नहीं थे तो पुस्तक में उन्हें ‘भगवान’शब्द से क्यों सम्बोधित किया गया है? इसका उत्तर है–ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।विष्णु पुराण 6/5/74 अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्यइन छह का नाम भग है।इनमें से जिसके पास एक भी हो उसे भी भगवान् कहा जा सकता है। श्रीराम के पास तो थोड़ी-बहुत मात्रा में ये सारे ही भगथे। इसलिए उन्हें भगवान् कहकर सम्बोधित किया जाता है। वे भगवान् थे, ईश्वर नहीं थे, न ईश्वर के अवतार थे। वे एक महामानव थे। यदि उन्हें एक महापुरूष मानकर हम उनके जीवन का अध्ययन करें तभी हम लाभान्वित हो सकते हैं।“

श्रीरामचन्द्र ने अपने पिता दशरथ के माता कैकेयी को दिए वचन व माता कैकेयी की इच्छा को शिरोधार्य कर स्वेच्छा से 14 वर्ष तक वनों में रहकर साधुओं का जीवन व्यतीत किया था। उनके वनवास का जीवन अनेक प्रसिद्ध घटनाओं से पूर्ण हैं जहां उन्होंने ऋषियों के यज्ञों की रक्षा के साथ राक्षसों का संहार कर पृथिवी को पापियों से मुक्त किया था। सुग्रीव के प्रति उनकी मित्रता और इसके लिए उसके भाई महावीर बाली का वध किया था। हनुमान जी की वेद-विद्या में निपुणता के वह प्रशंसक थे। अपने शत्रु रावण के भाई विभीषण को उन्होंने न केवल शरण व आश्रय दिया अपितु उसे रावण का वध करके लंकेश बनाया। मित्र सुग्रीव को राज्य व उसकी पत्नी को प्राप्त कराया। 14 वर्षों तक नगर से दूर रहे और कन्दमूल फल खाकर, सन्ध्या व यज्ञ का अनुष्ठान कर कठोर जीवन व्यतीत किया। उनके ऐसे कार्य सभी के लिए प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय है।

आज रामनवमी के दिन रामराज्य का वर्णन कर हम लेख को विराम देंगे। महायशस्वी श्रीराम ने 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरी कर भूमण्डल का शासन किया। महर्षि वाल्मीकि ने रामराज्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि श्रीराम के राज्य में स्त्रियां विधवा नहीं होती थीं, सर्पों से किसी को भय नहीं था और रोगों का आक्रमण भी नहीं होता था। रामराज्य में चारों और डाकुओं का नाम तक नहीं था। दूसरे के धन को लेने की तो बात ही क्या, कोई उसे छूता तक नहीं था। राम-राज्य में बूढ़े बालकों का मृतक-कर्म नहीं करते थे अर्थात् बालमृत्यु नहीं होती थी। राम-राज्य में सब लोग वर्णानुसार अपने धर्मकृत्यों का अनुष्ठान करने के कारण प्रसन्न रहते थे। श्रीराम उदास होंगे, यह सोच कोई किसी का दिल नहीं दुःखाता था। राम-राज्य में वृक्ष सदा पुष्पों से लदे रहते थे। वे सदा फला करते थे। उनकी डालियां विस्तृत हुआ करती थी। यथासमय वृष्टि होती थी और सुख स्पर्शी वायु चला करती थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कोई भी लोभी नहीं था। सब अपना-अपना कार्य करते हुए सन्तुष्ट रहते थे। राम-राज्य में सारी प्रजा धर्मरत और झूठ से दूर रहती थी। सब लोग शुभ लक्षणों से युक्त और धर्मपरायण होते थे। श्री राम चन्द्र जी का 51 वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ था और उन्होंने निरन्तर 30 वर्ष तक राज्य कर वेदों की परम्परा के अनुसार तप व ईश्वर का ध्यान व योगसाधना हेतु वनगमन किया था। आज उनके पावन जन्म दिवस रामनवमी पर हम सब उनके आदर्श चरित्र से प्रेरणा लेकर उनके गुणों को अपने जीवन में धारण करें, इसी में इस दिन को मनाने की सार्थकता है।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “वाल्मीकि के राम और वैदिक धर्म

  • मनमोहन जी , लेख बहुत अच्छा लगा , वैसे हिन्दू धर्म के बारे में इतना गियान तो रखता , फिर भी जितना कुछ पड़ा है उस के आधार पर यह कह सकता हूँ कि मुझे बहुत बातों से विशवास नहीं होता था कि यह ऐसा हो सकता है ? जैसे जब राम को भगवान् कहते थे मुझे समझ नहीं लगती थी कि भगवान् कैसे हो गए किओंकि वोह तो सिर्फ अयुधिया के राजा थे . उस समय अनगिनत राजा होते थे भारत में . इसी लिए तो अशव्मेध यग्य किया गिया कि कोई उन को चैलेन्ज करे या अधीनता सवीकार कर ले . दुसरे एक और बात से भी मैं हैरान था कि राम चन्द्र जी को लंका जाने के लिए कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था लेकिन सरूप नखा वैसे ही अकेली भारत में उसी वन में घूम रही थी यहां लक्ष्मण ने उस का नाक काटा था . इन बातों से शंका होती थी कि राम चन्द्र जी सीता को ढून्ढ रहे थे और जटायु ने बताया था कि सीता को रावण ले गिया है . सोचता था कि यह कैसे हो सकता है कि भगवान् को यह पता न चले . मैं रामाएंन को एक इतहास के तौर पर देखता था . आप का लेख पड़ का बहुत हद तक शंका की नाविरती हुई .

    • Man Mohan Kumar Arya

      लेख पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। ईश्वर अपने स्वरुप से निराकार, सर्व्यापक, सर्वज्ञ वा सर्वशक्तिमान आदि है. उसने यह अनंत ब्रम्हाण्ड बनाया है और इसका विगत २ अरब वर्षों से सञ्चालन कर रहा है। इससे पहले भी उसने अनंत बार सृष्टि को बनाया और प्रलय की और आगे भी यह बनाने, सञ्चालन करने और प्रलय करने का कार्य करेगा। सर्वशक्तिमान होने के कारण उसे अवतार न लेने की आवश्यकता है न उसने कभी अवतार लिए है। वह अपना प्रत्येक कार्य बिना अवतार लिए इच्छा या संकल्प मात्र से कर सकता है। वह कभी किसी जीवात्मा विशेष को अपना प्रतिनिधि वा मत प्रवर्तक बना कर भी नहीं भेजता क्योंकि वह स्वयंभू है अर्थात इस सृष्टि से सम्बंधित सभी कार्य अकेला कर सकता है। अवतारवाद एक मिथ्या या अन्धविश्वास है जो मध्यकालीन व्यक्तियों की अज्ञान प्रसूत कल्पना है। वेदो में सत्य ज्ञान होने से ही वह ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है। वेदो के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। अतः यह स्वरुप संसार को देखकर युक्ति, तर्क व विज्ञानं के आधार पर सत्य निश्चित होता है। आशा है कि आप भी सहमत होंगे? मैं प्रतिक्रिया में दिए गए आपके विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ। सत्य को ग्रहण करना वा करवाना, स्वयं मानना व मनवाना ही मनुष्यों का सच्चा धर्म है व वह सारे संसार के लोगो का एक ही है। श्री रामचन्द्र जी ईश्वर का अवतार नहीं अपितु संसार के सर्वोत्तम महान पुरुष थे जो संसार में सबके आदर्श होने चाहिए व निश्चय से हैं भी। महापुरुषों को धर्म व मजहब में बाँटना अनुचित है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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