वेद में वर्णित ईश्वर को जानिये
हमारे नवबौद्ध अम्बेडकरवादी मित्र प्रदीप नागदेव जी ने एक चित्र को बड़े जोश में आकर सोशल मीडिया में प्रचारित किया हैं जिसमें कूड़े के ढेर में पड़ी हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों और चित्रों पर कुत्तो को पिशाब करते हुए दिखाया गया हैं। उत्तेजित होने की इसमें कोई आवश्यकता नहीं हैं। वैसे यह दृश्य व्यापक रूप से किसी भी सार्वजानिक कूड़ेदान में देखा जा सकता हैं और चित्र भी सब तरह के दिखने को मिलते हैं हिन्दू देवी देवता, महात्मा बुद्ध, डॉ आंबेडकर, ईसा मसीह, क़ुरान की आयत, मक्का शरीफ का फोटो, अजमेर की दरगाह का फोटो,साईं बाबा का फोटो आदि। आपने शिवरात्रि पर शिवलिंग पर चूहे वाली कथा तो सुनी ही होगी जिसने मूलशंकर को स्वामी दयानंद बनने के लिए प्रेरित किया एवं उसका परिणाम यह निकला की स्वामी दयानंद ईश्वर की खोज में गृह त्याग कर निकले। स्वामी दयानंद को सच्चे शिव के दर्शन निराकार ईश्वर के रूप में मनुष्य की आत्मा में ही हुए न की मूर्ति अथवा प्रतीक पूजा के रूप में हुए। निराकार ईश्वर की उपासना में न किसी मंदिर, न किसी मध्यस्थ, न किसी सिफारिश, न किसी संसाधन की आवश्यकता हैं। निराकार ईश्वर को न कोई तोड़ सकता हैं। न कोई चुरा सकता हैं। न कोई अपमानित कर सकता हैं। हम लोग इसीलिए वेद वर्णित सर्वव्यापक, अजन्मा एवं निराकार ईश्वर की उपासन करते हैं। वेदों से ईश्वर के अजन्मा, सर्वव्यापक, अजर, निराकार होने के प्रमाण।
ईश्वर के अजन्मा होने के प्रमाण
१. न जन्म लेने वाला (अजन्मा) परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथ्वी को धारण करता हैं। ऋग्वेद १/६७/३
२. एकपात अजन्मा परमेश्वर हमारे लिए कल्याणकारी होवे। ऋग्वेद ७/३५/१३
३. अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर गर्भस्थ जीवात्मा और सब के ह्रदय में विचरता हैं। यजुर्वेद ३१/१९
४. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त हैं। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।- यजुर्वेद ४०/८
ईश्वर सर्वव्यापक हैं
१. अंत रहित ब्रह्मा सर्वत्र फैला हुआ हैं। अथर्ववेद १०/८/१२
२. धूलोक और पृथ्वीलोक जिसकी (ईश्वर की) व्यापकता नहीं पाते। ऋग्वेद १/५२/१४
३. हे प्रकाशमय देव! आप और से सबको देख रहे हैं। सब आपके सामने हैं। कोई भी आपके पीछे हैं देव आप सर्वत्र व्यापक हैं। ऋग्वेद १/९७/६
४. वह ब्रह्मा मूर्खों की दृष्टी में चलायमान होता हैं। परन्तु अपने स्वरुप से (व्यापक होने के कारण) चलायमान नहीं होता हैं। वह व्यापकता के कारण देश काल की दूरी से रहित होते हुए भी अज्ञान की दूरिवश दूर हैं और अज्ञान रहितों के समीप हैं। वह इस सब जगत वा जीवों के अन्दर और वही इस सब से बाहर भी विद्यमान हैं। यजुर्वेद ४०/५
५. सर्व उत्पादक परमात्मा पीछे की ओर और वही परमेश्वर आगे, वही प्रभु ऊपर, और वही सर्वप्रेरक नीचे भी हैं। वह सर्वव्यापक, सबको उत्पन्न करने वाला हमें इष्ट पदार्थ देवे और वही हमको दीर्घ जीवन देवे।ऋग्वेद १०/२६/१४
६. जो रूद्र रूप परमात्मा अग्नि में हैं जो जलों ओषधियों तथा तालाबों के अन्दर अपनी व्यापकता से प्रविष्ट हैं।- अथर्ववेद ७/८७/१
ईश्वर अजर (जिन्हें बुढ़ापा नहीं आता) हैं
१. हे अजर परमात्मा, आपके रक्षणों के द्वारा मन की कामना प्राप्त करें। ऋग्वेद ६/५/७
२. जो जरा रहित (अजर) सर्व ऐश्वर्य संपन्न भगवान को धारण करता हैं वह शीघ्र ही अत्यन्त बुद्धि को प्राप्त करता हैं। ऋग्वेद ६/१ ९/२
३. धीर ,अजर, अमर परमात्मा को जनता हुआ पुरुष मृत्यु या विपदा से नहीं घबराता हैं।- अथर्ववेद १०/८/४४
४. हम उसी महान श्रेष्ठ ज्ञानी अत्यंत उत्तम विचार शाली अजर परमात्मा की विशेष रूप से प्रार्थना करें।- ऋग्वेद ६/४९/१०
ईश्वर निराकार हैं
१. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त हैं। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।-यजुर्वेद ४०/८
२. परमेश्वर की प्रतिमा, परिमाण उसके तुल्य अवधिका साधन प्रतिकृति आकृति नहीं हैं अर्थात परमेश्वर निराकार हैं। यजुर्वेद ३२/३
३. अखिल अखिल ऐशवर्य संपन्न प्रभु पाँव आदि से रहित निराकार हैं। ऋग्वेद ८/६९/११
४. ईश्वर सबमें हैं और सबसे पृथक हैं। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३१/१
५. जो परमात्मा प्राणियों को सब और से प्राप्त होकर, पृथ्वी आदि लोकों को सब ओर से व्याप्त होकर तथा ऊपर निचे सारी पूर्व आदि दिशाओं को व्याप्त होकर, सत्य के स्वरुप को सन्मुखता से सम्यक प्रवेश करता हैं, उसको हम कल्प के आदि में उत्पन्न हुई वेद वाणी को जान कर अपने शुद्ध अन्तकरण से प्राप्त करें। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३२/११
इनके अलावा और भी अनेक मंत्र से वेदों में ईश्वर का अजन्मा, निराकार, सर्वव्यापक, अजर आदि सिद्ध होता हैं। जिस दिन मनुष्य जाति वेद में वर्णित ईश्वर को मानने लगेगी उस दिन संसार से धर्म के नाम पर हो रहे सभी प्रकार के अन्धविश्वास एवं पापकर्म समाप्त हो जायेगे।
जहाँ लोगों को यह समझाया जाता हो कि वेद भी नेति-नेति कहकर मौन हो जाता है, वहाँ सर्वनियन्ता, सर्वग्य आदि-आदि विशेषणों से उस ईश्वर को कैसे परिभाषित किया जा सकता है ? कृपया लेख के मूल आधार को स्पष्ट किया जाय तो ईश्वर समझ में समाये | धन्यवाद |
बहुत अच्छा लेख !