गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

चलो उनसे सलाम हो जाए ।
इस तरह इंतकाम हो जाए ।।

चाँद से डर था बेवफाई का ।
उसका किस्सा तमाम हो जाये ।।

बहुत लम्बी है दास्तां तेरी ।
कुछ अधूरा कलाम हो जाए ।।

बे वजह जिद है रूठ जाने की ।
अब तेरा इंतजाम हो जाए ।

टूट के गिरना ही उसकी फितरत ।
बेवफा उसका नाम हो जाए ।।

बड़ी सहमी अदा तबस्सुम की ।
कत्ल की एक शाम हो जाए।।

नवीन

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक [email protected]

3 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

  • डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

    बहुत सुन्दर

  • वाह किया ग़ज़ल लिखी है , मज़ा आ गिया.

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