सूर्य के ताप को स्याही बनाने वाले कवि : -राम धारी सिंह दिनकर
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे.
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल.
सब जन्म मुझी से पाते हैं,फिर लौट मुझी में आते हैं.
बचपन में हिंदी के अपने पाठ्यक्रम में पढी रामधारी सिंह दिनकर की कृष्ण की चेतावनी नामक कविता से यह पंक्तियाँ जब जब भी गुनगुनाती थी अपने को भरपूर जोश और ऊर्जा से भरा महसूस करती थी .जब उनकी लिखी यह पंक्तियाँ पढ़ीं कि –“ दोनों में से तुम्हें क्या चाहिये कलम या तलवार “ तो ठान लिया कलम को ही अपनी तलवार बनाउंगी .मेरे जीवन पर दिनकर के ओज का जो प्रभाव बाल्यावस्था से पडा कि आज तक उनकी लिखी कई कवितायें मुंह जवानी याद है जो कि मेरे अन्दर हौसला और आशावादिता का समय समय पर संचार करती है .जैसा कि उनके नाम से प्रकट है “दिनकर”उनकी रचनाओं में भी सूर्य का वैसा ही ओज समाया है .आज भी हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर के जैसा ऊर्जा और जोशपूर्ण काव्य का रचियता कोई और देखने को नहीं मिलता . उन्हें अलविदा कहे हुए 41 साल से अधिक का वक़्त बीत चुका है मगर उनकी रचनाएं आज भी उनके ‘चाहने वालों’ की जुबां पर बनी हुई हैं. राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं. बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकरका जन्म हुआ . उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की. साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था रामधारी सिंह पिता बाबु राव सिंह व माता मनरूप देवी की दूसरी संतान थे. किसान परिवार से सम्बंधित दिनकर अभी एक साल के थे तब पिता जी अलविदा कह गये,माँ आर्थिक हालात से जूझते हुए बेटों को पाला और पढाया.कम उम्र में ही विवाह हुआ .रामधारी सिंह दिनकर कविता के लिए पूरी तरह समर्पित थे उनका मानना था कि –“कविता वह सुरंग है जिसमे से गुजर मनुष्य एक विश्व से दूसरे विश्व में प्रवेश करता है उनका यह कहना कि कविता गाकर रिझाने के लिए नहीं वरन डूबकर खो जाने के लिए है ,सावित करता है कि कविता उनके रग रग इस तरह बसी थी, मानो वही उनके प्राण हो वही उनका जीवन हो .दिनकर “स्वतंत्रता से पूर्व विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए .
पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा
हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया.
उनके उग्र भावों को प्रदर्शित करती प्रसिद्ध कविता है ‘हिमालय’ जिसकी ये पंक्तियाँ अत्यंत प्रसिद्ध हैं –
रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर.
आजादी के लिए व्याकुल नयी पीढ़ी के लिए उन्होंने लिखा –
नए सुरों में थिंजिनी बजा रही जवानियाँ.
लहू में तैर तैर के नहा रही जवानियाँ.
दिनकर आवेग एवं स्वच्छन्दता के भी कवि थे ‘रेणुका’ की पहली ही कविता में उनका यह कहना –
भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल.
दिनकर स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे.26 जनवरी 1950 में भारतीय गणतंत्र का संविधान लागू किया गया तो दिनकर ने एक कविता लिखी जिसकी मशहूर पंक्ति है – ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे. एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है. इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उवर्शी में मिलता है.’सामधेनी’ में एक कविता है – अंतिम मनुष्य. इस कविता में कवि कहता है –
सारी दुनिया उजड़ चुकी है गुजर चुका है मेला;
ऊपर है बीमार सूर्य नीचे मैं मनुज अकेला.
‘हुंकार’ में उन्होंने समर्पित भाव से कहा –
कलम आज उनकी जय बोल !
जला अस्थियाँ बारी बारी
छिटकाई जिनने चिनगारी
जो चढ़ गए पुष्प वेदी पर लिए बिना गरदन का मोल
1928 में ‘प्रण-भंग’ उनकी पहली प्रकाशित रचना मानी जाती है जो अब मौजूद नहीं है. दूसरी रचना ‘युवक’ पत्र जिसे रामवृक्ष बेनीपुरी निकालते थे में प्रकाशित हुई ‘अमिताभ’ नाम से.1928 में मैट्रिक पास की,1930 में गाँधी जी के ‘नमक सत्याग्रह’ में भागीदारी की किन्तु अपने पारिवारिक जीवन के दायित्वों के कारण बीए करने के लिए पढाई जारी रखनी पड़ी. बीए पास करने के बाद उन्होंने 55₹ मासिक पर एक स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी शुरू की पर एक जमींदार द्वारा संचालित इस स्कूल में अंग्रेजीयत का बोलबाला और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के रहते उसे छोड़ 1934 में सब रजिस्ट्रार की नौकरी हासिल की और 1943 तक इस पद पर रहें. आज़ादी के बाद उन्हें प्रचार विभाग का डीप्टी-डायरेक्टर बना दिया गया.नौकरी से ऊबे हुए दिनकर ने 1950 में इस्तीफा दे दिया,इसके बाद बिहार सरकार ने मुज्जफरपुर के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया.1952 में इस पद को त्याग कर राज्यसभा के सदस्य बने,इसके बाद भागलपुर विश्वविद्यालय में उप कुलपति रहे.1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहें.दिनकर ना केवल ओज कवि थे अपितु बच्चों के लिए भी उन्होंने उम्दा बाल साहित्य का सृजन किया. बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’. ‘मिर्च का मजा’ में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं. ‘मिर्च का मजा’ में एक मूर्ख क़ाबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है. मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है-
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा.
ऊर्वशी को छोड़कर, दिनकरजी की अधिकतर रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है उनकी कुरुक्षेत्र, महाभारत के शांति-पर्व का कवितारूप है. यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गई. वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिंतन के अनुरुप हुई है. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है, क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है. दिनकरजी की रचनाओं के कुछ अंश-
रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो (कुरूक्षेत्र से)
पत्थर सी हों मांसपेशियां लौहदंड भुजबल अभय, नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय (रश्मिरथी से)
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं, दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं
सच पूछो तो सर में ही बसती दीप्ति विनय की संधि वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग है बल के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमग है
दिनकरजी को उनकी रचना कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया . भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानध उपाधि से सम्मानित कि. गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिए चुना , 1968 में उन्हें उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित किया गया .1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे.कविवर हरिवंश राय बच्चन का उनके सन्दर्भ में यह कहना कि यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका खुद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखी .
— सपना मांगलिक
बहुत अच्छा लेख !