बहुआयामी एवं आशावादी व्यक्तित्व के धनी : टैगोर
रबीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म सात मई अठारह सौ इकसठ को कलकत्ता पश्चिम बंगाल के सभ्रांत कुल में हुआ .वह एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। जिन्हें उन्नीस सौ तेरह में साहित्य के लिए विश्व का सर्वश्रेष्ठ नोबल पुरूस्कार प्रदान किया गया। टैगोर ने बांग्ला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की .इन्होने बहुत कम आयु में काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था। रबींद्रनाथ टैगोर ने 1880 के दशक में कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित की तथा लगभग दस वर्ष बाद मानसी की रचना की। यह संग्रह उनकी प्रतिभा की परिपक्वता का परिचायक है। इसमें उनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ शामिल हैं, जिनमें से कई बांगला की नई पद्य शैलियों में हैं। साथ ही इसमें कुछ सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य भी हैं।
रविन्द्र के गीतों में विश्वास कूट कूट कर भरा होता था उनका खुद मानना था कि –
“विश्वास वह पंक्षी है जो अन्धकार से ठीक पूर्व ही प्रकाश का अनुभव कर लेता है ,और गाने लगता है “
दो-दो देशों के राष्ट्रगान( भारत का राष्ट्र-गान जन-गण- मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला ) को लिखने वाले विश्व के एकमात्र गीतकार रवीन्द्रनाथ टैगोर पुरातन पंथी लेखक ना होकर वैश्विक समानता और एकल प्रयास के पक्षधर थे। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व आदमी की भावनाओं की अभिव्यक्ति करना था। उन्हें पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारे स्वंय के भाव सीने की सात परतों के भीतर से निकालकर किसी ने कागज़ पर बिखरा दिए हों . टैगोर प्रकृति प्रेमी भी थे उनका यह कथन कि-“ कलाकार प्रकृति प्रेमी है ,अत:उसका स्वामी भी है और दास भी “ उनके प्रकृति प्रेम को दर्शाता है उनकी रचनाओं में प्रकृति का सजीव चित्रण ही उनकी रचनाओं को बाकी रचनाकारों से पृथक करता है .उनके नाटकों के रंगमंच पर भी एकमात्र दुःख: या क्षोभ ही ज़िंदा नहीं है, मनुष्य की जीने के प्रति ललक और उसके लिए किया गया संघर्ष भी है,वह अपनी कहानियों एवं उपन्यासों से फौलाद को लोहा और लोहे को फौलाद बनाने की कूबत रखते थे ,टैगोर खुद एक उच्च स्तरीय परिवार में चांदी की चम्मच मुंह में लेकर बेशक पैदा हुए थे मगर उनके ह्रदय में निम्न तबके के लोगों का दर्द पलता था । और आशावादिता भी ,वह कहते थे कि –
“तुम सूर्य के जीवन से चले जाने पर चिल्लाओगे तो तुम्हारी आंसू भरी आँखें सितारे कैसे देखेंगी ?”
उनका यह भी मानना था कि –“प्रत्येक बालक यह सन्देश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है “
सियालदह और शजादपुर स्थित अपनी ख़ानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए 1891 में टैगोर ने 10 वर्ष तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश) में रहे, वहाँ वह अक्सर पद्मा नदी पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे । उनकी चौरासी कहानियों में से वह सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, जिनमें ‘दीन-हीनों’ का जीवन और उनके छोटे-मोटे दुख’ वर्णित हैं, 1890 के बाद की हैं जिनमे दीदी पोस्ट मास्टर ,काबुली वाला ,अतिथि ,क्षुदित पाषाण , मास्टर साहब ,आधी रात में इत्यादि हैं .इन सभी कहानियों में उनका कथा शिल्प ,उपमाएं,वर्णन शैली अभिव्यक्ति के उस गगन को छू जाती हैं जहाँ तक ना उनसे पहले और ना ही उनके बाद या फिर अब तक कोई भी रचनाकार नहीं पहुँच पाया है .वह शब्द दर शब्द आदमी को अपनी कलम की उड़न तश्तरी में बैठाकर वहां तक ले जाते थे जहाँ से उनके पात्र ताल्लुक रखते थे और वह जीवन शैली वह बोलचाल हमें उन पात्रों की नहीं वरन अपनी सी मालूम देती थी . उनका यह कहना कि –“मनुष्य का जीवन एक महानदी की तरह है जो बहाब में भी अपने लिए नए रास्ते खोज लेता है “ हालांकि टैगोर के उपन्यास उनकी कविताओं और कहानियों जैसे असाधारण नहीं हैं, लेकिन वह भी उल्लेखनीय है। इनमें सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है गोरा (1990) और घरे-बाइरे (1916; घर और बाहर),
साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके अन्दर की सीखने की ललक और उनके विविधतापूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक है । हालांकि उन्होंने चित्रकला की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली मगर चीजों को बारीकी से देखने एवं विभिन्न आयामों में उसका निरिक्षण करने वाली उनकी पारखी नजर तथा कला के विभिन्न स्वरू स्वरूपों में उनकी गहरी समझऔर रुची ही उनकी शिक्षक एवं प्रेरक थी एक अवचेतन प्रक्रिया के रूप में आरंभ टैगोर की पांडुलिपियों में उभरती और मिटती रेखाएं ख़ास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमयी मानवीय चेहरों, गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं फूलों के चित्र थे। कल्पना की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है। कभी-कभी तो ये अप्राकृतिक रूप से रहस्यमयी और कुछ धुंधली याद दिलाते हैं। तकनीकी रूप में टैगोर ने सर्जनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। स्याही का प्रयोग कर बनाए उनके चित्रों में एक स्वच्छंदता दिखती है क्योंकि वह साधारण चीजों जैसे कूची, कपड़ा, रूई के फाहों, और यहाँ तक कि अंगुलियों के द्वारा भी चित्र और उनकी मुद्राओं को आकर देने में कुशल थे .यह उनके मन की आजादी और आत्मविश्वास को प्रदर्शित करते हैं . 7 मई उन्नीस सौ इकसठ को भारत सरकार ने टैगोर पर डाक टिकट जारी किया. उनके कई कविता संग्रह और नाटक आए, जिनमें सोनार तरी (1894; सुनहरी नाव) तथा चित्रांगदा (1892) उल्लेखनीय है। वास्तव में टैगोर की कविताओं का अनुवाद लगभग असंभव है और बांग्ला समाज के सभी वर्गों में आज तक जनप्रिय उनके 2,000 से अधिक गीतों, जो ‘रबींद्र संगीत’ के नाम से जाने जाते हैं, पर भी यह लागू होता है .
टैगोर की कविताओं को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अँग्रेज़ी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ़ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अँग्रेज़ी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखाः ‘हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नज़र आ रही है।’ बाद में यीट्स ने ही अँग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए मैं रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैल गई।
1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शान्तिनिकेतन में एक प्रारंभिक विद्यालय की स्थापना की। जहाँ उन्होंने भारत और पश्चिमी शिक्षा मूल्यों को मिलाने का प्रयास किया। वह विद्यालय में ही स्थायी रूप से रहने लगे और 1921 में यह विद्यालय विश्व भारती विश्वविद्यालय में तब्दील हो गया . 1912 में जब गुरुदेव लंदन गए तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रकाशित हो चुका था, और इस यात्रा को पहली बार वहाँ के प्रमुख समाचार पत्र ‘द टाइम्स’ में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा जिसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.बी.यीट्स, एच.जी.वेल्स, जे.डी. एण्डरसन और डब्ल्यू.रोबेन्सटाइन आदि उपस्थित थे। टैगोर ना केवल कला के प्रत्येक क्षेत्र में दखल रखते थे अपितु बहुभाषी भी थे हिंदी एवं बांगला के साथ उनकी पकड़ अंग्रेजी पर भी खूब मजबूत थी जैसा कि उनकी पुस्तक ‘द केरसेण्ट मून’ की समीक्षा करते हुए एक समाचार पत्र ने लिखा था कि इस बंगाली (यानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) का अंग्रेज़ी भाषा पर जैसा अधिकार है वैसा बहुत कम अंग्रेजों का होता है।रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जलियाँवाला काण्ड के विरोध स्वरूप अपना ‘सर’ का खिताब लौटा दिया .रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस हत्याकाण्ड के मुखर विरोध किया और विरोध स्वरूप अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि को वापस कर दिया था। आज़ादी का सपना ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ। इस घटना के बाद आज़ादी हासिल करने की इच्छा और ज़ोर से उफन पड़ी। यद्यपि उन दिनों संचार के साधन कम थे, फिर भी यह समाचार पूरे देश में आग की तरह फैल गया। ‘आज़ादी का सपना’ पंजाब ही नहीं, पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा। उस दौरान हज़ारों भारतीयों ने जलियांवाला बाग़ की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर देश को आज़ाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया।1912 में टैगोर ने लम्बा समय भारत से बाहर बिताया , और ना केवल यूरोप ,अमेरिका अपितु पूर्वी एशिया के देशों में व्याख्यान देते व काव्य पाठ करते रहे और भारत के मुखर प्रवक्ता बन गए।
भारत के राष्ट्रगान के प्रसिद्ध रचयिता और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी इस युग पुरुष का कलकत्ता में सात अगस्त उन्नीस सौ इकतालीस में देहांत हो गया .मगर गुरुदेव आज भी एक ज्योतिपुंज की तरह कला ,गीत संगीत एवं चित्रकला के क्षेत्र से जुड़े लोगों के ह्रदयों में हमेशा विध्यमान रहेंगे .और पूरा भारत ऐसे युग पुरुष के अपनी मिटटी में जन्म लेने के कारण और विश्व में उसकी पहचान और गौरव बढाने के लिए हमेशा गौरवान्वित रहेगा .
— सपना मांगलिक
अच्छा लेख! गुरुदेव टैगोर अनेक प्रतिभाओं के धनी थे।