चाय पीने का मेरा भी मन है…
माना कि चाय हमारा राष्ट्रीय पेय है। लोग कश्मीर से कन्याकुमारी तक चाय के अलग-अलग स्वरूप के लुत्फ़ उठाते हैं। जैसे चाय हमारे लहू में घुल-मिल गयी हो, ऐसा नहीं लगता? चाय के बारे में कोई जाति-पाँति का भेद नहीं है और ना अमीरी-ग़रीबी का। मानो चाय तो सर्वस्वीकृत है। चाय के बारे में कई विशेषताए या तुकबंदी भी प्रसिद्द हैं। कश्मीर में चाय की असली पत्ती के बदले विशेष प्रकार की जड़ीबुटियों के कंदमूल को ही उबाला जाता है। उसमे नमक डालकर नींबू का रस निचोड़ा जाता है। ऐसी चाय को सोल्टी-टी कहते है। सोल्टी-टी के साथ पतली-मीठी पापड जैसी रोटी सुबह के नाश्ते में ली जाती है। जिसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी बताया जाता है कि पहाड़ियों की ऊँचाई के कारण डी-हाईड्रेशन होने का ख़तरा रहता है। उसी कारण नमक और नींबू का मिश्रण किया जाता है। कश्मीर में जो नमक सल्पाई किया जाता है वह गुजरात के सुरेंद्रनगर के पाटडी और खाराघोदा क्षेत्र से है और वह प्रथम श्रेणी का है। जो आमतौर से यहाँ के लोगों के नसीब में कहाँ?
दार्जिलिंग में चाय के पौधों की पत्ती जब उबाली जाती है तो उसकी असली सुगंध हमारे मन को ताज़गी से भर देती है। क्योंकि उसमें प्रकृति की अनूठी सुगंध होती है। दीव में वांजा जाति के लोग प्रतिदिन शाम के वक़्त चाय के साथ दो केणां (छोटे, पीले, सुनहरी छीलकेवाले केले) का भोजन लेते है। उनकी चाय में दूध नहीं मगर पुदीना और नींबू के रस का मिश्रण होता है। दक्षिण भारत में ऊँचे कद की ताम्बे की केटली (चायदानी) के चोंगे में लकड़ी का डाट दिया जाता है। जब डाट निकाला जाता है तो उसमे से निकलती भाप की महक तन-मन में फुर्ती का संचार कर देती है। तम्बाकू और कॉफी के मुकाबले चाय में निकोटिन की मात्रा मामूली होती है। पित्त (वात और कफ़) प्रकृति के लोगों केलिए चाय तो मानो एसिड ही बन जाती है ! उत्तर में चाय और दक्षिण में कॉफी ज़्यादा प्रिय होती है। कुछ समय पहले हुए संशोधन के अनुसार चाय पीने से हार्ट एटेक की मात्रा कम होती है। मगर ऐसे संशोधन के बारे में दिन-प्रतिदिन बदलाव आता है।
भारतीय समाज में बेटी जब बड़ी होती है तो सबसे पहले उन्हें चाय बनाने की तालीम दी जाती है, उसके बाद ही खाना पकाने का काम ! जब कोई अपने बेटे के लिए लड़की देखने जाते है तो वह चाय कैसी बनाती है उन पर ही ज़्यादा निर्भर रहते थे। मगर आज के ज़माने में ऐसा नहीं है। गुजराती भाषा में चाय के लिए – “चा पीधी? या चा पीधो?” – बोला जाता है। मानो हम हिन्दुस्तानीओ के लिए चाय ही “सर्वधर्म समभाव” की सुगंध फैलाती है। ट्रेन में जब हम सफ़र करते हैं तो तड़के काँच की प्याली खनकने की आवाज़ें या प्लास्टिक की प्याली पर लम्बे नाख़ून से ऊँगली फेरकर कर्कश आवाज़ करता चायवाला “चाय बोलो भाई चाय.. ” – एलार्म की घंटी का कार्य करता है।
चाय के लिए महँगे पारदर्शक काँच के टी-सेट, सिरेमिक, स्टील या सिल्वर और जर्मन मेटल के टी-सेट का उपयोग होता है। उसके अलावा प्लास्टिक, थर्मोकोल और मिट्टी की कुल्हडियों में चाय दी जाती है। चाय के लिए गुजराती में एक तुकबंदी है –
कपटी नर कॉफी पीवे, चतुर पीवे चा,
दोढ़ डाह्या दूध पीवे, मूरख पाड़े ना !
अमदावाद में एल.डी. इंजीनियरिंग कॉलेज और यूनिवर्सिटी के सामने बैठकर कोलेजियाँ लडके-लड़कियाँ “दो कटिंग” कहते देखना अच्छा लगता है। वहाँ पढाई कम और मौज-मस्ती की बाते ज़्यादा होती हैं। यही मीरजापुर-लाल दरवाज़ा के पास “लक्की” चाय जिसने नहीं पी, वह भला अमदावाद के बारे में क्या जाने? लक्की की चाय और मस्काबन दिन मेंएक ही बार खाकर मैंने भी कई दिन गुज़ारे है, वह स्मरण आज भी ताज़ी चाय जैसा ही है ! अमदावाद की पतंग और सूरत की टेक्ष प्लाज़ा होटल में दस वर्ष पहले पचास से पचहत्तर रुपये में एक कप चाय मिलती तो आश्चर्य लगता था। डायाबिटिस के मरीज़ भी चाय की मोहकता को नज़रअंदाज़ नहीं कर पातें, इसी कारण से तो सुगर-फ्री का संशोधन हुआ न ?
आधी चाय में तो लोग मुश्किल कार्य भी करवा लेते है। सचिवालय हो या कोई भी सरकारी दफ़्तर, चाय के बहाने कर्मचारी को बाहर ले जाकर आप छोटा-बड़ा सौदा भी कर सकते है। कई बार तो किसी ख़ास होटल की चाय पीने के बाद फिर से वहीं जाने को मन करता है। पूछो क्यूँ ? उस चाय के साथ अफ़िम की डोडी भी उबाली जाती है। थोड़ा नशा हो तो अच्छा लगता है न?
गुजरात के सुरेंद्रनगर में “राज” की चोकलेटी चाय का मज़ा ही कुछ अलग है। उसके मालिक स्वर्गीय सजुभा बापू काउंटर पर बैठकर बोलते है तो घडी भर लोग सुनने खड़े रह जाते हैं। आंबेडकर चौक में उनकी होटल के सामने ही रेलवे की दीवार है। शाम के वक्त वहाँ मजदूर इकट्ठे होते है। दातून बेचने वाले देवीपूजक भी होतें है। निकट में ही कागज़ के पेकिंग मटीरियल की फ़ैक्ट्री है। उन सब के लिए सजुभा बापू अपने वेइतर को सूचना देते सुनाई देते हैं, उसी का नमूना आपके लिए; “बे भींते (दीवार), दोढ़ कागळ (कागज़ की फ़ैक्ट्री), आदधी दातण (दातून वाला) आदि…
हमारे मित्र डॉ. रुपेन दवे सुबह १०-बजे मरीज़ों पर गुस्सा हो जाए और कम्पाउन्डर घनश्याम रोज़मर्रा की तरह डॉक्टर पर गुस्सा करें तब पास में रहे केमिस्ट जिज्ञेश को भी गुर्राहट करते हुए देखने का मौक़ा भी मरीज़ों को मिला है। ऐसा क्यों होता होगा, भला ! अरे भाई, सुबह दस बजे का समय तो चाय का होता है, बेचारे सुज्ञ मरीज़ क्या जाने?
गुजरात के जानेमाने लोक-कलाकार बाबू राणपुरा चोटिला के पास केतन मेहता की फ़िल्म “मिर्च मसाला” में काम कर रहे थे, तब सुरेंद्रनगर की पतारावाली होटल में स्वर्गीय स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, सुरेश ओबेरॉय और डिरेक्टर केतन मेहता ने बाबू की प्रिय चाय पीने की जिद्द की थी।
गुजरात में छोटे शहरों में चाय की होटल पर ऑर्डर देने की ख़ास स्टाईल होती है। जैसे कि ” एक अड़धी चा, पंखो चालु करो, आजनु छापुं लावो तो भाई ! रेडियामां भजन वगाड़ोने यार ! बहार सायकल छे, एमां तालूंनथी, ध्यान राखजे।” आधी चाय के ऑर्डर में होटल के वेइतर को खरीद लिया न हो जैसे? बारिश के मौसम में चाय का महत्त्व ज़्यादा होता है। अगर कोई हमसे मिलकर ख़ुश हो जाता है तो कहता है; “चलो, आईसक्रीम खाए। उसमें अपनी ख़ुशी को बाँटने का आनंदहोता है। मगर, मन उदास हो, थकान हो, दू:ख की बात हो यामन पर बोझ… ऐसे समय अगर कोई अपना मिल जाए तो सहजता से ही शब्द निकलते है; “आईए, चाय पीते हैं।” अंत में हिन्दी ग़ज़लकार श्री ज्ञान प्रकाश विवेक के इन शब्दों को समझने की कोशिश करें…
शेष तो सब कुछ है, अमन है; सिर्फ कर्फ्यू की थोड़ी घुटन है
आप भी परेशान से है; चाय पीने का मेरा भी मन है… !
— पंकज त्रिवेदी
हा हा हा ! बढ़िया लेख। चाय आज के युग का सत्य है। कहा है-
राम राज में दूध दही, कृष्ण राज में घी।
कलयुग में बस चाय बची है, फूँक फूँक कर पी।।