नारी की पराधीनता
भारत को तो मिल गयी पूरी स्वाधीनता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
कभी पिता कभी पति की बनती है गुलाम,
बुढ़ापे में फिर बेटा का भी सहती है निजाम,
खूद निर्णय लेने की उसमें कभी न हुई क्षमता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
कागज पर तो मिले हैं उसे बहुत से आरक्षण,
पर कितनी नारियाँ यहाँ बनी हुई है सक्षम,
परिवार समाज में आज भी नहीं मिली है मान्यता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
हर युग में नारी का होता आया है शोषण,
सीता गयी वनवास में पांचाली का हुआ चीर-हरण,
पति को सेवा करनेवाली बनती थी पतिव्रता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
पति मरे विधवा का रुप बच्चा न जन्में बाँझ का नाम,
अशुभ और अस्पृश्य कहके करते हैं उसको बदनाम,
दुश्वार जीवन उसका बना कूपमंडूकता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
पुरुष-प्रधान समाज में लेखनी पर उतारती गुस्सा,
कोरे कागज पर जंग छेड़कर करती है दिल को हल्का,
अब लेखनी को तलवार बनाकर लानी होगी हमें एकता।
तब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।
– दीपिका कुमारी दीप्ति
सुन्दर कविता।
कविता अच्छी है लेकिन इसके भावों से मैं सहमत नहीं हूँ। बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढापे में पुत्र के संरक्षण में रहना पराधीनता नहीं है। उनके सम्माननीय रक्षा के लिए यह आवश्यक है।