कविता

नारी की पराधीनता

भारत को तो मिल गयी पूरी स्वाधीनता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

कभी पिता कभी पति की बनती है गुलाम,
बुढ़ापे में फिर बेटा का भी सहती है निजाम,
खूद निर्णय लेने की उसमें कभी न हुई क्षमता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

कागज पर तो मिले हैं उसे बहुत से आरक्षण,
पर कितनी नारियाँ यहाँ बनी हुई है सक्षम,
परिवार समाज में आज भी नहीं मिली है मान्यता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

हर युग में नारी का होता आया है शोषण,
सीता गयी वनवास में पांचाली का हुआ चीर-हरण,
पति को सेवा करनेवाली बनती थी पतिव्रता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

पति मरे विधवा का रुप बच्चा न जन्में बाँझ का नाम,
अशुभ और अस्पृश्य कहके करते हैं उसको बदनाम,
दुश्वार जीवन उसका बना कूपमंडूकता।
कब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

पुरुष-प्रधान समाज में लेखनी पर उतारती गुस्सा,
कोरे कागज पर जंग छेड़कर करती है दिल को हल्का,
अब लेखनी को तलवार बनाकर लानी होगी हमें एकता।
तब खत्म होगी नारी की पराधीनता।।

– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

2 thoughts on “नारी की पराधीनता

  • विजय कुमार सिंघल

    कविता अच्छी है लेकिन इसके भावों से मैं सहमत नहीं हूँ। बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढापे में पुत्र के संरक्षण में रहना पराधीनता नहीं है। उनके सम्माननीय रक्षा के लिए यह आवश्यक है।

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