यशोदानंदन-३५
देवराज इन्द्र का आदेश पाते ही समस्त घातक बादल वृन्दावन के उपर प्रकट हुए। वहां निरन्तर बिजली की चमक, बादलों की गर्जना तथा प्रबल झंझा के साथ अनवरत वर्षा होने लगी। मोटे-मोटे स्तंभों के समान अविराम वर्षा करते हुए बादलों ने धीरे-धीरे वृन्दावन के संपूर्ण क्षेत्र को जलमग्न कर दिया। वर्षा के साथ तीव्र गति से प्रबल हवा चल रही थी। वृन्दावन का प्रत्येक प्राणी शीत से थरथराने लगा। वर्षा से दुखी गायें अपना सिर नीचा किए और बछड़ों को अपने नीचे छिपाए एक साथ श्रीकृष्ण के पास आईं। समस्त वृन्दावनवासी भी एक ऊंचे स्थान पर एकत्रित हुए। उन्होंने भी अपनी व्यथा सुनाई। सबने एक स्वर से कहा कि गोवर्धन- पूजा से कुपित देवराज इन्द्र उन्हें दंड दे रहे हैं। सबने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से रक्षा की प्रार्थना की।
श्रीकृष्ण ने वृन्दावनवासियों को धीरज बंधाते हुए कहा –
“हे वृन्दावनवासियो! निस्सन्देह गोवर्धन पूजा से कुपित इन्द्र ने ही प्रतिशोध लेने के लिए यह प्रलयंकारी वर्षा की है। परन्तु आपलोग तनिक भी चिन्ता न करें। वह ब्रह्माण्ड के कार्यों के संचालन में स्वतंत्र नहीं है। वह मदान्ध हो गया है। मैं उसके मिथ्या गर्व को चूर-चूर कर दूंगा। आपलोगों की रक्षा करना मेरा दायित्व ही नहीं, कर्त्तव्य भी है। मैं अपनी कनिष्ठा ऊंगली पर इस गोवर्धन पर्वत को धारण करता हूँ। आप सभी पर्वत के छत्र के नीचे कुशल पूर्वक प्रवेश करें। अपने गोधन, भोजन-सामग्री और अन्य आवश्यक वस्तुएं भी साथ में लायें। आपलोग प्रलयंकारी वर्षा तथा प्रचण्ड वायु से अत्यधिक पीड़ित हुए हैं अतः गोवर्धन को मैं अपनी ऊंगली पर धारण कर रहा हूँ। आपलोग रंचमात्र भी भयभीत न हों। यह न सोचें कि यह पर्वत मेरे हाथ से गिर जाएगा। यह विशाल पर्वत एक विशाल छत्र की भांति हम सबकी रक्षा करेगा। आप सभी अपने पशुओं समेत सुख एवं प्रसन्नता के साथ रहें।”
देखते ही देखते श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा ऊंगली पर धारण कर लिया। सभी वृन्दावनवासी एवं पशु-पक्षी एक सप्ताह तक श्रीकृष्ण की शरण में रहे। वहां न अतिवृष्टि कोई प्रभाव दिखा रही थी और न ही प्रचंड वायु। इन्द्र ने अपनी अतिरिक्त शक्ति का भी प्रयोग किया परन्तु सब निष्फल। स्वर्ग के महाराज इन्द्र पर तो मानो वज्रपात हो गया। उनका संकल्प डिग गया। पवन देवता और वरुण देव ने देवराज को समझाया –
“महाराज अबतक हमने आपकी आज्ञा का पालन किया, परन्तु आगे करना संभव नहीं है। आप जिसे एक साधारण मनुष्य या छोटा बालक समझ बैठे हैं, वे वस्तुतः संपूर्ण जगत के नियन्ता नारायण हैं। उन्होंने अपनी योगशक्ति से गोवर्धन पर्वत को अपनी एक ऊंगली पर उठा रखा है। समस्त वृन्दावनवासी उनके द्वारा रक्षित हैं। हम सभी संपूर्ण सृष्टि के सामने उपहास का पात्र बन रहे हैं। जिनकी कृपा से इस ब्रह्माण्ड ही नहीं, हम सभी का अस्तित्व है, हमने उन्हीं को समझने में भूल की है। क्या उनके द्वारा रक्षित एक चींटी का भी हम अकल्याण कर सकते हैं? अब और अधिक विलंब न करें देवराज। अपना आदेश वापस लीजिए और नारायण से क्षमा-याचना कीजिए। वे अत्यन्त दयालू हैं, आपको अवश्य क्षमा कर देंगे।”
देवराज इन्द्र को अपनी भूल की अनुभूति हो गई। उन्होंने अविलंब सांवर्तक को बुलाया और वर्षा बंद करने का निर्देश दिया। सभी देवताओं के साथ श्रीकृष्ण के समीप जाकर अपने कृत्य के लिए क्षमा-याचना की। श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए उनका निवेदन स्वीकार किया। इन्द्र का अहंकार चूर-चूर हो चुका था। देखते ही देखते संपूर्ण आकाश निरभ्र हो गया। सूर्य देवता आकाश में हंस रहे थे। पवन देवता ने अपनी सामान्य गति प्राप्त की। सारा उत्पात थम चुका था। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उसके मूल स्थान पर पुनः स्थापित कर दिया। अपने प्राणप्रिय वृन्दावनवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –
“हे मेरे वृन्दावनवासियो। सारा उत्पात समाप्त हो चुका है। नदी की बाढ़ तथा जलप्लावन भी अब बीते कल की चर्चा है। आप सभी लोग किसी भी प्राकृतिक आपदा से सर्वथा सुरक्षित हैं। अतः अपने गोधन एवं अन्य सामग्रियों के साथ अपने-अपने घर को प्रस्थान कर सकते हैं।”
अपने-अपने घरों को प्रस्थान करने के पूर्व सभी वृन्दावनवासी श्रीकृष्ण के पास आये। सबने आनन्दविभोर होकर उनका आलिंगन किया। गोपियों ने अपना अश्रुमिश्रित दही उनको समर्पित किया। माता यशोदा, माता रोहिणी, महाराज नन्द, अग्रज बलराम और समस्त श्रेष्ठजनों ने उन्हें छाती से लगाया तथा बारंबार आशीष दिए। सिद्धलोक, गंधर्वलोक तथा चारणलोक के देवों ने परम प्रसन्नता प्रदर्शित की। उन्होंने पृथ्वी पर पुष्पवृष्टि की और शंख ध्वनि तथा ढोल की थाप के साथ कान्हा की स्तुति की। श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से पूरित प्रत्येक आयु वर्ग की गोपियों ने पुण्य-लीलाओं का देर तक कीर्तन किया। सभी वृन्दावनवासियों को विदा करके कान्हा अपने मित्रों के साथ घर वापस आए।
रोचक प्रस्तुति !