आकर्षण-अनुकर्षण व विमान विज्ञान तथा महर्षि दयानन्द
महर्षि दयानन्द जी के प्रमुख ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ है। महर्षि दयानन्द की घोषणा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-प़ढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। महर्षि दयानन्द वेदों को ईश्वरीय ज्ञान व आध्यात्मिक विषयों में परम प्रमाण या स्वतः प्रमाण मानते थे और वेद के अतिरिक्त ऋषि-मुनियों आदि के बनायें गये ग्रन्थों, लेखों व विचारों को परतः प्रमाण मानते थे यदि वह वेदानुकूल हों। उनके समय में वेदों के प्रमाणिक भाष्य उपलब्ध नहीं थे। अतः उन पर यह दायित्व था कि वह वेदों का प्रामाणिक भाष्य वा वेदार्थ करें। धार्मिक व आध्यात्मिक जगत में भाषा की दृष्टि से संस्कृत को ही मान्यता थी। हमारे सभी धर्म संबंधी ग्रन्थ भी संस्कृत में ही हैं। अतः उन्होंने वेदों का भाष्य संस्कृत में किया। उनके समय मे संस्कृत बहुत कम पण्डितों द्वारा जानी व समझी जाती थी। बड़़े-बड़े धार्मिक विद्वान भी शुद्ध संस्कृत लिखना व बोलना नहीं जानते थे जबकि महर्षि दयानन्द शुद्ध व सरल संस्कृत बोलते थे जो हिन्दी भाषी लोग सहजता से समझ लेते थे। आर्ष व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन व प्रयोग तो प्रायः बन्द ही था। सभी धार्मिक जन लौकिक संस्कृत ही पढ़ते थे और वैदिक साहित्य का अर्थ करते हुए अनर्थ करते थे क्योंकि वह वेदों के पदों व शब्दों के यौगिक अर्थों से अपरिचित होते थे। यहां तक कि विश्वविख्यात वैदिक विद्वान मैक्समूलर भी वैदिक पदों के यौगिक अर्थ नहीं जानते थे। अतः महर्षि दयानन्द ने संस्कृत में इस लिए भाष्य किया कि उन पर सनातन धर्मी कहलाने वाले पौराणिक विद्वान यह आरोप न लगायें कि यह संस्कृत नहीं जानते। महर्षि ने वेदों का भाष्य वा वेदार्थ संस्कृत के साथ-साथ आर्य भाषा हिन्दी में भी किया। वेदों का भाष्य करते हुए चारों वेदों की भूमिका का लिखा जाना आवश्यक था जिससे वेद भाष्य के सभी पाठक महर्षि दयानन्द की वेदों संबंधी मान्यताओं व सिद्धान्तों को संक्षेप में परिचय जान सकें। इस प्रयोजन को पूरा करने के लिए उन्होंने चारेां वेदों की भूमिका के रूप में “ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” ग्रन्थ का प्रणयन किया। हमारा ज्ञान व अनुभव कहता कि वेदों पर इस ग्रन्थ के समान उपयोगी व वेदों के तात्पर्य वा अभिप्रायः बताने वाला अन्य दूसरा कोई ग्रन्थ संसार के साहित्य में नहीं है।
इस लेख का उद्देश्य मुख्यतः वेदों में आकर्षण-अनुकर्षण वा गुरूत्वाकर्षण के नियम का परिचय देना है जिसके लिए हमें एक विद्वान महोदय ने कहा है। महर्षि के उपर्युक्त वर्णित ग्रन्थ ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ का एक अध्याय ही ‘अथाकर्षणानुकर्षणविषयः’ अर्थात् आकर्षण व अनुकर्षण शीर्षक से है। इस अध्याय में 5 वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनका संस्कृत व हिन्दी में भाष्य किया गया है। इन पांच मन्त्रों में 4 ऋग्वेद तथा 1 यजुर्वेद का मन्त्र है। वेदों में आकर्षण व अनुकर्षण विषय का विज्ञान है, यह जानने के लिए इन मन्त्रों व इनके हिन्दी अर्थों को प्रस्तुत कर रहें हैं। यह पांच मन्त्र व उनका हिन्दी भाष्य क्रमशः इस प्रकार है।
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे।। ऋग्वेद अ. 6। अ. 1। व. 6। मं. 3।।
भाषार्थ–(यदा ते.) इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि सब लोकों के साथ सूर्य्य का आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों के साथ परमेश्वर का आकर्षण हैं। मन्त्र के दो अर्थ किये गये हैं। पहला अर्थ–हे इन्द्र परमेश्वर ! आपके अनन्त बल और पराक्रम गुणों से सब संसार का धारण, आकर्षण और पालन होता है। आपके ही सब गुण सुर्य्यादि लोकों को धारण करते हैं। इस कारण से सब लोक अपनी अपनी कक्षा और स्थान से इधर–उधर चलायमान नहीं होते। दूसरा अर्थ–इन्द्र जो वायु, इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं। उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है। इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी ही कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते।
यदा ते मारूतीर्विशस्तुभ्यमिन्द्र नियेमिरे।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे।। ऋ. अ. 6। अ. 1। व. 6। मं. 4।।
भाषार्थ–(यदा ते मारूती.) अभिप्राय—इस मन्त्र में भी आकर्षण विद्या है। हे परमेश्वर ! आपकी जो प्रजा, उत्पत्ति स्थिति और प्रलयधर्मवाली और जिसमें वायु प्रधान है, वह आपके आकर्षणादि नियमों से तथा सूर्य्यलोक के आकर्षण करके भी स्थिर हो रही है। जब इन प्रजाओं को आपके गुण नियम में रखते हैं, तभी भुवन अर्थात् सब लोक अपनी अपनी कक्षा में घूमते और स्थान में वस रहे हैं।
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे।। ऋ. अ. 6। अ. 1। व. 6। मं. 5।।
भाषार्थ–(यदा सूर्य.) अभिप्राय—इस मन्त्र में भी आकर्षण विचार है। हे परमेश्वर ! जब उन सुर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने अनन्त सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हो, इसी कारण से सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं। इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है।
व्यस्तभ्नाद्रोदसी मित्रो अद्भुतोऽन्तर्वावदकृणोज्ज्योतिषा तमः।
वि चर्मणीव धिषणे अवत्र्तयद्वैश्वानरो विश्वमधत्त वृष्ण्यम्।। ऋ. अ.4 अ.5 व.10मं.3
भाषार्थ–(व्यस्तभ्नाद्रोदसी.) अभिप्राय—इस मन्त्र में भी आकर्षणविचार हैं। हे परमेश्वर ! आपके प्रकाश से ही वैश्वानर सूर्य आदि लोकों का धारण और प्रकाश होता है। इस हेतु से सूर्य आदि लोक भी अपने अपने आकर्षण से अपना और पृथिवी आदि लोकों का भी धारण करने में समर्थ होते हैं। इस कारण से आप सब लोकों के परम मित्र और स्थापन करनेवाले हैं और आपका सामर्थ्य अत्यन्त आश्चर्यरूप है। सो सविता आदि लोक अपने प्रकाश से अन्धकार को निवृत्त कर देते हैं तथा प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप इन दोनों लोकों का समुदाय धारण और आकर्षण व्यवहार में वर्त्तते हैं। इस हेतु से इनसे नाना प्रकार का व्यवहार सिद्ध होता है। वह आकर्षण किस प्रकार से है कि जैसे त्वचा में लोमों का आकर्षण हो रहा है, वैसे ही सूर्य आदि लोकों के आकर्षण के साथ सब लोकों का आकर्षण हो रहा है और परमेश्वर से भी इन सूर्य आदि लोकों का आकर्षण हो रहा है।
आ कृष्णेन रजसा वत्र्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्य च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। यजुर्वेद अ. 33। मं. 43।।
भाषार्थ–(आकृष्णेन.) अभिप्राय—इस मन्त्र में भी आकर्षणविद्या है। सविता जो परमात्मा, वायु और सूर्य लोक हैं, वे सब लोकों के साथ आकर्षण, धारण गुण से सहित वर्त्तते हैं। सो हिरण्यय अर्थात् अनन्त बल, ज्ञान और तेज से सहित (रथेन) आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने के योग्य ज्ञान और तेज से युक्त है। इसमें परमेश्वर सब जीवों के हृदयों में अमृत अर्थात् सत्य विज्ञान को सदैव प्रकाश करता है और स़ूर्यलोक भी रस आदि पदार्थों को मर्त्य अर्थात् मनुष्य लोक में प्रवेश करता, और सब लोकों को व्यवस्था से अपने अपने स्थान में रखता है। वैसे ही परमेश्वर धर्मात्मा ज्ञानी लोगों को अमृतरूप मोक्ष देता, और सूर्यलोक भी रसयुक्त जो ओषधि और वृष्टि का अमृतरूप जल को पृथिवी में प्रविष्ट करता है। सो परमेश्वर सत्य असत्य का प्रकाश और सब लोकों का प्रकाश करके सबको जनाता है तथा सूर्य लोक भी रूपादि का विभाग दिखलाता है।
उपर्युक्त वेदमन्त्रों वा उनके भाषार्थ से यह सिद्ध होता है कि सूर्य, पृथिवी व लोक-लोकान्तरों के परस्पर आकर्षण-अनुकर्षण का ज्ञान व विज्ञान वेदों में सृष्टि की उत्पत्ति के समय से है। पृथिवीस्थ सभी अणु व पदार्थ भी आकर्षण के नियम से एक दूसरे जुड़े या बन्धें हुए हैं। वैशेषिक दर्शन व अन्य वैदिक साहित्य को पढ़कर विज्ञान विषयक अनेक बातों को सूक्ष्मता, गम्भीरता व किंचित विस्तार से जाना जा सकता है।
हम इस लेख में वैदिक विमान विद्या का भी संक्षिप्त उल्लेख करना चाहते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ सन् 1876 में लिखा था जिसका प्रकाशन सन् 1877 में हुआ। उस समय तक संसार में कहीं पर न तो विमान बना था और न ही इसकी चर्चा भारत व योरूप के किसी देश में थी। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ में सोलहवां अध्याय ‘नौविमानादिविद्याविषयः’ विषय का लिखकर संसार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। महर्षि दयानन्द अपना यह ग्रन्थ मासिक अंकों में एक पत्रिका के रूप में प्रकाशित करते थे जो डाक से देश विदेश में इसके अग्रिम ग्राहकों को प्रेषित किया जाता था। इस प्रेषण सूची में लन्दन के प्रो. मैक्समूलर का नाम सबसे पहले था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सन् 1876-77 में यह विचार प्रो. मैक्समूलर सहित इंग्लैण्ड आदि पश्चिमी देशों के अनेक लोगों तक पहुंच गये थे। इस ग्रन्थ ने मैक्समूलर के विचारों में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया था जिसका परिणाम उनका यह कथन है कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से होता है और इसकी समाप्ति स्वामी दयानन्द कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर होती है। इसके बाद उन्होंने लन्दन में प्रशासनिक अधिकारियों को जो लैक्चर दिये उनका प्रकाशन ‘इण्डिया, व्हाट कैन इट टीच अस?’ से हुआ है जिसमें वैदिक साहित्य की प्रशंसा है।
महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रकाशित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पुस्तक के बाद मुम्बई के प्राच्य विमानविद्या संशोधक श्री शिवकर बापू तलपदे ने 31 वर्ष की आयु में सन् 1895 में न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे और वडोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड व सहस्रों दर्शकों की उपस्थिति में पूर्ण स्वदेशी उपकरणों के आधार पर मुम्बई के चैपाटी क्षेत्र में स्वनिर्मित विमान ‘मरूत्सखा’ उड़ाने का सफल प्रदर्शन किया था। श्री तलपदे महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त और आस्थावान वेदमतानुयायी आर्यसमाजी थे और मराठी मासिक पत्र ‘आर्यधर्म’ के सम्पादक भी थे। अतः हमारा अनुमान है कि पश्चिमी देशों में विमान का विचार महर्षि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और श्री तलपदे के सन् 1895 में विमानोड्डान का ही परिणाम हो सकता है। जो भी हो विमान निर्माण में विश्व में जो क्रान्ति आई है उसमें विमान व इससे जुड़ी अनेक सम्भावनाओं व स्थापनाओं पर विश्वास व्यक्त करने वाले प्रथम पुरूष महर्षि दयानन्द ही थे और विमान का प्रथम आविष्कार व सफल उड़ान का श्रेय राइट बन्धुओं से पूर्व श्री बापू शिवकर तलपदे जी को है। हम आशा करते है कि लेख की जानकारी पाठकों के लिए उपयोगी होगी।
–मनमोहन कुमार आर्य
लेख अच्छा है. मैंने कहीं पढ़ा था कि स्वामी दयानद जी महाराज ने एक बार बातचीत में किसी से कहा था कि मैं वेदों के आधार पर विमान बना सकता हूँ, लेकिन मेरे पास उतना समय नहीं है, क्योंकि वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा करना अधिक महत्वपूर्ण है.
इस लेख में श्री तलपडे जी के विमान के बारे में पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई. पर एक प्रश्न मन में उठ रहा है कि क्या अब वैसा विमान बनाना संभव नहीं रहा? क्या कोई वैदिक विद्वान ऐसा नहीं है देश में जो तलपडे जी द्वारा किये गए कार्य को स्वयं करके दिखा सके? अगर ऐसा हो जाये तो वैदिक ज्ञान को बहुत प्रतिष्ठा मिलेगी.
मैंने भी यह कही पढ़ा या सुना है कि स्वामी जी आपके ही शब्दों के अनुरूप कहीं टिप्पणी की है। मैं इसे ढूंढने का प्रयास करता हूँ। यदि मिल गई तो आपको अवगत कराऊंगा। महर्षि भरद्वाज कृत वैदिक विमान शास्त्र या किसी ग्रन्थ में पारे का विमान का ईंधन होना मिलता है। मैंने सुना है कि अमरीका के नासा या किसी अन्य यूरोपीय देश में इस पर अनुसन्धान हो रहा है। कुछ माह पूर्व विश्व विज्ञानं कांग्रेस में भी वैदिक विमान विज्ञानं पर एक भारतीय का प्रेजेंटेशन हुआ था। इस विषय में ठोस जानकारी मिलने पर मैं सूचित करूँगा। आपका हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , लेख बहुत अच्छा लगा . सुआमी दया नन्द जी महान थे .
आपने लेख पढ़ कर प्रशंसा की, आपका हार्दिक धन्यवाद है। जिनके द्वारा मेरे विचार आप तक पहुँच रहें हैं, उन सभी आदरणीय बन्धुवों का भी मैं कृतज्ञ हूँ।