ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी…!
आसमान से गिरा परिंदा,
देख बद्नीयत नर की,
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
पंछी इस अनजान डगर पर रोज सवेरे आता,
सेठ मगन का हरा बगीचा उसके मन को भाता,
नहीं लुभा पाती थी उसको,
कोठी संगमरमर की,
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
रोजाना की तरह आया वो दाना चुगने को,
आई एक आवाज हुआ तैयार ज्यों ही उड़ने को,
रे भोली चिड़िया! कुछ पल मुझसे भी तो बतला ले,
मेरा ही यह बाग देख और मुझको भी दिखला ले,
सुन मर्दानी राग पंछी में,
दौड़ी बिजली डर की,
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
चिड़िया फड़फड़ाते हुए जा बैठी पेड़ की टहनी,
सुनने लगी डरी-सी बाग के मगन सेठ की कहनी,
बोला मगन,”री चिड़िया! मुझसे वृथा ही डरती हो,
मैं कहता हूं बात काम की,
क्यूं ना तुम करती हो?
कैसा हरियाला बाग मेरा और कैसा मेरा महल!
सब कुछ हो सकता है तेरा, चाहे जितना टहल!”
चिड़िया ने देखा तो संझा,
हो आई थी पहर की,
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
चिड़िया बोली,”सेठ मगन! मैं गलती से आ गई,
नहीं पता कोठी का, मुझे ये खुली हवा भा गई,
उड़ते-उड़ते मेरी साँसे जब टकराने लगी,
तो उतर बगीची में तेरी,
मैं कुछ सुस्ताने लगी,
पर अब संझा की एक हिलोर,
रजनी होगी अंबर की,
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
‘अच्छा तो मैं चली!’
कह चिड़िया उड़ने को ज्यों हुई,
री चिड़िया! सुन बात मेरी पूरी तो नहीं हुई,
बोला मगन-“री सुंदर चिड़िया! तुझको महल दिखा दूं,
वारिस बन जा तू इसकी, यह तेरे नाम लिखा दूं,
सब कुछ मेरे पास है पगली, स्वर्ण-धवल के जेवर,
देख सैकड़ों नौकर दौड़े देख मेरे ये तेवर!
तेरी खातिर प्यारी चिड़िया, इक पिंजड़ा बनवा दूं,
जिसमें तरह-तरह के व्यंजन पास तेरे पहुंचा दूं”,
“क्या सोना, क्या चांदी, सेठ नहीं है मुझको भान,
नौकर क्या होता है और होता क्या है पकवान?
पिंजड़े का तो नाम सेठ तुमने ही बतलाया है,
ना देखा ना कभी मेरी मां ने ही दिखलाया है”,
बातों में उलझी चिड़िया को देखा सेठ मगन ने,
किया इशारा इक नौकर को उसने मन ही मन में,
चिड़िया ने महसूसी तन पर,
शिला जैसी पत्थर की…
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!
उस कोमल चिड़िया ने तब एक उड़ान भरी,
जाकर सीधी अपनी मां की गोद गिरी,
मां!.. ओ मां! कहते- कहते नन्हीं चिड़िया सो गई,
मानव के दानव स्पर्श से रजनी में खो गई,
यही कथा है आज ‘प्रजापति’
दुनिया में घर-घर की…
ख़ाक हुई मंजिल संदली-सी,
लुटते हुए सफर की…!!
अच्छी कविता !
धन्यवाद बड़े भाई !