ग़ज़ल
सीना अश्कों से भर गया होता
मैं न रोता तो मर गया होता
खुद ही डूबा हूँ मैं तेरे ग़म में
चाहता तो उबर गया होता
ग़म की लौ और तेज़ होती तो
और थोडा निखर गया होता
फिर न आवारगी गले मिलती
गर कहीं मैं ठहर गया होता
बेहिसी ने बचा लिया वरना
आज मैं भी सिहर गया होता
जिस्म ज़ख्मों से ढँक गया वरना
बे-लिबासी में मर गया होता
उसकी आँखों ने मुखबिरी कर दी
वो तो फिर से मुकर गया होता
लौट आता अगर न ग़ज़लों में
और ‘कान्हा ‘ किधर गया होता
— प्रखर मालवीय ‘कान्हा’
superb
“उसकी आँखों ने मुखबिरी कर दी
वो तो फिर से मुकर गया होता”
वाह वाह ! बहुत सुन्दर !
shukriya sahab