यशोदानंदन-37
वह शरद-पूर्णिमा की रात थी। बेला, चमेली, गुलाब, रातरानी की सुगंध से समस्त वातावरण मह-मह कर रहा था। चन्द्रदेव ने प्राची के मुखमंडल पर उस रात विशेष रूप से अपने करकमलों से रोरी-केशर मल दी थी। उस रात मंडल अखंड था। वे नूतन केशर की भांति लाल हो रहे थे, मानो संकोचमिश्रित अभिलाषा से युक्त हों। उनकी कोमल रश्मियां समस्त वन-क्षेत्र में स्वाभाविक अनुराग का संचार कर रही थीं। वन के कोने-कोने में उन्होंने अपनी चन्द्रिका के अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था। मंद पवन विभिन्न पुष्पों की सुरभि का संवाहक बना था। सभी देवता, ऋषि, मुनि, गंधर्व, किन्नर आश्चर्यचकित थे। शरद-पूर्णिमा तो प्रत्येक वर्ष आती है। परन्तु उस रात्रि को शरद-पूर्णिमा सोलहों शृंगार के साथ आई थी। सबके नेत्र विस्फारित थे। इतनी सुहानी रात पृथ्वी पर पहले कभी नहीं देखी गई।
परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित आत्माओं का अपने परम प्रिय परमात्मा से मिलन की रात्रि थी वह। बालक श्रीकृष्ण के पास व्रज में रहने के अब कुछ ही दिन शेष थे। एक विशाल कार्य-क्षेत्र उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। नौ वर्षीय कन्हैया को चीरहरण के समय सखी गोपियों को दिया हुआ वचन याद था। व्रज से प्रस्थान के पूर्व उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना उन्होंने अपना धर्म माना और छेड़ ही तो दी अपनी मुरली की मधुर तान। परमात्मा जब स्वयं मनुष्य का रूप धारण कर मधुर संगीत की तान छेड़ दे, तो ऐसी कौन जीवात्मा है जो सम्मोहित न हो उठे। मन, प्राण और आत्मा के समर्पण के लिए विश्वमोहन श्रीकृष्ण की मुरली की एक टेर ही पर्याप्त थी, परन्तु वहां तो लगातार अनहद नाद सुनाई पड़ रहा था। फिर गोपियां अपने घर में कैसे रुकतीं? चांदनी रात में मार्ग भूलने का भी खतरा था, लेकिन गोपियां कहां माननेवाली थीं? वन में जाने पर हिंसक पशुओं का भी डर था, परन्तु जिसने परमात्मा का वरण कर लिया, उसे भय कैसा? श्रीकृष्ण की मुरली से आ रहा मधुर स्वर ही उनका मार्गदर्शन कर रहा था। शीघ्र ही यमुना के किनारे कदंब के पेड़ पर शान्त भाव से मुरली बजाते हुए उनके प्रियतम दिखाई पड़े। बड़ी तन्मयता से आसपास की गतिविधियों से अप्रभावित जगत्पिता अपनी ही धुन में मगन था। गोपियों के धैर्य की सीमा टूट चुकी थी उन्होंने पायल छनकाए, चूड़ियां बजाईं और समवेत स्वर में गुहार लगाईं। श्रीकृष्ण का ध्यान भंग हुआ। भूत, भविष्य और वर्तमान के सर्वश्रेष्ठ वक्ता ने विनोदभरे वाक्चातुर्य से सखियों को मोहित करते हुए कहा –
“महाभाग्यवती सखियो! तुम्हारा हृदय के अन्तस्तल से स्वागत है। व्रज में सब कुशल-मंगल तो है न? इस अर्द्धरात्रि के समय अचानक तुम्हें आने की आवश्यकता क्यों पड़ गई?”
गोपियों पर अचानक जैसे आकाश से बिजली गिर गई। श्रीकृष्ण के प्रश्न का उत्तर वे ढूंढ़ नहीं पा रही थीं। सिर झुकाकर चुपचाप खड़ी रहीं और नख से धरती को कुरेदती रहीं।
अन्तर्यामी श्रीकृष्ण भला गोपियों की भावनाओं से अनभिज्ञ कैसे रह सकते थे? फिर भी सांसारिकता का पाठ पढ़ाना आवश्यक समझ उन्होंने शहद से भी मीठी वाणी में उन्हें संबोधित किया –
“मेरी प्रिय गोपियो! यह अर्द्धरात्रि का समय है। वन में विचरण के लिये यह समय अत्यन्त भयावना है। इस समय भयानक जीव-जन्तु शिकार की खोज में भटकते रहते हैं। रात्रि-प्रहर में ललनाओं को वन में नहीं आना चाहिए। मैं तुमलोगों को सुरक्षा प्रदान करूंगा। तुमलोग वापस व्रज में लौट जाओ। तुम्हें घर में अनुपस्थित पाकर तुम्हारे पिता, पति, पुत्र, भाई-बन्धु व्यग्र हो रहे होंगे। उन्हें आशंका और भय के भंवर में मत डालो। तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे, चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से आच्छादित इस वन की प्राकृतिक सुषमा के दर्शन किए। यमुना जी के पवित्र जल का स्पर्श करके बहते हुए पवन के झोंकों से झूमते हुए इन वृक्षों के पत्तों का संगीत भी सुना। अब विलंब मत करो। शीघ्र अपने-अपने घरों को लौट जाओ। मेरे प्रेम के वशीभूत होकर तुमलोग यहां एकत्रित हुई हो। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। यह तो तुम्हारे योग्य ही है। जगत के सभी पशु-पक्षी और वनस्पति तक मुझसे प्रेम करते हैं। लेकिन वे भी अपने कर्त्तव्य-पथ से च्युत नहीं होते। कल्याणी गोपियो! स्त्रियों का परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओं, माता-पिता की निष्कपट भाव से सेवा करें तथा अपनी सन्तान का पालन-पोषण करें। गोपियो! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से और उन सबके कीर्तन तथा ध्यान से मेरे प्रति अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है। वैसे प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती। इसलिए तत्काल तुमलोग अपने घरों को लौट जाओ।”
गोपियों को श्रीकृष्ण से ऐसे वचनों की अपेक्षा नहीं थी। उनका हृदय दुःख से भर गया। उन्होंने अपने सारे भोग, समस्त कामनायें, सभी सुख श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिया था। उनके नेत्रों से अविरल अश्रु-प्रवाह होने लगा। क्या श्रीकृष्ण इतने निष्ठुर हो सकते हैं? अब उनका धैर्य भी टूटने के कगार पर था, लेकिन कंठ से कोई ध्वनि निकल नहीं पा रही थी। रोते-रोते आँखें रक्तिम हो चली थीं और गला भी रुंध गया था। न वे आगे बढ़ सकती थीं और न पीछे जा सकती थीं। राधारानी का भी बुरा हाल था। उन्होंने धीरज धारण करते हुए आँखों से निरन्तर बह रहे आंसुओं को पोंछा और गद्गद वाणी से कहना आरंभ किया –
“हे कन्हैया! प्यारे श्रीकृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदय की समस्त बातें जानते हो। तुम स्वयं विचार करो – क्या तुम्हें इतना निष्ठुर होना चाहिए? इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम स्वतंत्र और हठीले हो। तुम पर हमारा कोई वश नहीं। फिर भी हमारा आग्रह स्वीकार करो। जिस प्रकार आदि पुरुष नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही तुम हमें स्वीकार करो। हमारा त्याग मत करो। हे श्यामसुन्दर! तुम सारे धर्मों के रहस्य जानते हो। पति, पुत्र, पिता, माता और भाई-बन्धुओं की सेवा करना स्त्रियों का धर्म है। यह सत्य और निर्विवाद है। पर परमात्मा से परम प्रेम करना कब प्रतिबन्धित रहा है? तुम साक्षात नारायण हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो और परम प्रियतम हो। आत्मज्ञान में प्रविष्ट जीव तुमसे ही प्रेम करते हैं क्योंकि तुम नित्य, प्रिय एवं अपनी ही आत्मा हो। अनित्य एवं दुःखद सांसारिक जीवन से मुक्ति का मार्ग हो। जो तुम्हें पा लेते हैं उनके लिए लौकिक सुख, कर्त्तव्य और धर्म प्रयोजनहीन बन जाते हैं। अतः हम पर प्रसन्न होवो। हम पर कृपा करो, कमलनयन! हमने चिरकाल तक तुम्हारे प्रति पाली-पोसी अभिलाषा की लहलहाती लता का पोषण किया है। उसका छेदन मत करो। मनमोहन! अबतक हमारा चित्त सांसारिकता में लिप्त था। हमारी सारी इन्द्रियां उसी में रमी थीं। परन्तु देखते ही देखते तुमने उस चित्त को लूट लिया। इसके लिए तुमको अलग से कोई प्रयास भी नहीं करना पड़ा। तुम तो सुख-स्वरूप हो न! अब जबकि हमने अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पित कर दिया है, तुम निराश कर रहे हो। अब तो हमारी मति-गति निराली हो गई है। हमारे ये पैर जड़ हो गए हैं। तुम्हारे चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे जाने के लिए तैयार नहीं हैं। हम व्रज में कैसे जांय? बलपूर्वक यदि तुमने वहां भेज भी दिया, तो हम करेंगे क्या? प्राणवल्लभ! हमारे प्रिय सखा! तुम्हारी मंद मधुर मुस्कान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की अग्नि उद्दीप्त कर दी है। तुमसे अगर प्रतिदान नहीं मिला, तो हम विरह की अग्नि में अपने-अपने नश्वर शरीर को होम कर देंगी, ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण-कमलों का वरण कर लेंगीं। फिर तुम हमें कहां रोक पाओगे? मृत्यु के पश्चात् ही सही, हम तुम्हें प्राप्त करके ही रहेंगीं।
हे कमलनयन। तुम वनवासियों के अत्यन्त प्यारे हो और वे भी तुमसे अनन्त प्रेम करते हैं। इसीलिए प्रायः तुम उन्हीं के पास रहते हो। तुम्हारे जिन चरण-कमलों की सेवा का अवसर मात्र लक्ष्मी जी को प्राप्त होता है, हमें उन्हीं के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवन्! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण ली, उसके सारे दुःख-क्लेश सदा के लिए दूर हो गए। अब हम पर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। तुम्हारी सेवा करने की अभिलाषा से नश्वर और क्षणभंगुर कुटुंब, घर-गांव – सबकुछ छोड़कर इस भयावह वन में हम अर्द्धरात्रि को उपस्थित हैं। हमें अपने प्राणों का भी मोह नहीं है। भोग, विलास, सुख, शरीर, मर्यादा, परंपरा, धर्म – सब के सब नित्य हैं, मरणशील हैं। एक तुम्हीं सनातन हो, शाश्वत हो, अप्रमेय हो, अनन्त हो, अच्युत हो। न जाने कितनी बार हमने जन्म लिया और मृत्यु को प्राप्त हुई हैं। हम सभी इस आवागमन से मुक्ति की कामना करती हैं। हमारे जन्म-जन्मान्तरों की तपस्या का फल इस जन्म में प्राप्त हुआ है। तुम्हें सदेह पाकर हमने सर्वस्व पा लिया है। प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिसपर घुंघराली अलकें शोभायमान हैं, तुम्हारे ये कमनीय कपोल जिनपर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं, तुम्हारे ये मधुर अधर जिनकी सुधा, सुधा को भी लजानेवाली है, तुम्हारी यह नयनमोहिनी चितवन, जो मंद-मंद मुस्कान से उल्लसित हो रही है, तुम्हारी ये दोनों भुजायें, जो शरणागत को अभय-दान देने में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षस्थल जो लक्ष्मी का – धन. ऐश्वर्य और सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीड़ास्थल है, निरखकर हम तुम्हारी दासी हो गई हैं। हमने अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पित कर दिया है।प्यारे शयामसुन्दर! तीनों लोकों में ऐसी कौ सी स्त्री है जो मधुर-मधुर पद, आरोह-अवरोह क्रम से विविध प्रकार की मूर्च्छनाओं से युक्त तुम्हारी मुरली की धुन सुनकर सुधबुध न खो दे। तुम्हारी इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्ति को जो अपने सौन्दर्य की एक बूंद से त्रिलोक को सौन्दर्य का दान कर्ती है, जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिण भी रोमांचित और पुलकित हो जाते हैं, उसे देखकर हम कुलकान और लोकलज्जा को त्याग कर तुममें अनुरक्त हो जांय, तो कैसा आश्चर्य? तुमने अपनी एक ऊंगली पर सात दिनों तक महापर्वत गोवर्धन को धारण किए रखा। अब यह रहस्य किसी भी व्रजवासी से छिपा नहीं है कि तुम साक्षात नारायण हो। तुम व्रज-मंडल का दुःख और भय दूर करने के लिए ही प्रकट हुए हो। दीन-दुखियों पर तुम्हारा प्रेम सर्वविदित है। प्रियतम! तुम्हारे इस निष्ठुर व्यवहार से हम सभी दुःखी हैं। तुम्हारे मिलन की आकांक्षा की आग से हमारा वक्षस्थल जल रहा है। जीवात्मा परमात्मा से मिलने को अधीर है। अब देर न करो माधव! हमें अपना लो। हमें नवजीवन प्रदान करो।”
रोचक वर्णन शैली !