यशोदानंदन-३८
पहली बार श्रीकृष्ण निरुत्तर हुए थे। जिसके पास ब्रह्माण्ड के सभी प्रश्नों के उत्तर थे, वह राधा के सामने चुप था। गोपियों के प्रेम ने श्यामसुन्दर को बिना मोल खरीद लिया। भक्तों के सम्मुख भगवान को भी समर्पण करना पड़ता है। देर तक राधारानी की मधुर वाणी का श्रवण करने के बाद कन्हैया ने मंद स्मित बिखेर कर सबमें आनन्द का संचार किया, मुरली को अधरों का स्पर्श दिया और छेड़ दिया वह अनहद नाद जिसके श्रवण का सौभाग्य सिर्फ गोपियों को ही प्राप्त था। किसी को भी न तन की सुध थी, न मन की, न वसन की, न अलंकरण की। यमुना ने स्थिर होकर मुरली की धुन सुनी, पवन ने थमकर आनन्द-सागर में गोते लगाए। वृक्ष स्तब्ध थे, वन के मृग श्रीकृष्ण और गोपियों को घेर परिधि पर खड़े हो गए। चन्द्रमा अपनी समस्त कलाओं के साथ आकाश के मध्य में मुस्कुरा रहा था, सितारे झिलमिला रहे थे। बांसुरी-वादन की यह अवधि अत्यन्त अल्प थी। श्रीकृष्ण ने मुरली को विराम दिया और दुकूल में खोंसते हुए गोपियों को संबोधित किया –
“मेरी प्रिय गोपियो! तुमलोगों ने मेरे लिए घर-गृहस्थी की उन समस्त बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से, अमर जीवन से, अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का प्रतिदान देना चाहूं, तो भी नहीं दे सकता। मैं जन्म-जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव और प्रेम से मुझे उऋण कर सकती हो, परन्तु मैं इसकी कामना नहीं करता। मैं सदैव चाहूंगा कि तुम्हारा ऋण मेरे सिर पर सदा विद्यमान रहे।”
श्रीकृष्ण ने अपनी बात समाप्त क्या की, गोपियों के समूह में आनन्द की लहरें हिलोरे लेने लगीं। उनके मुखमंडल प्रफुल्लित हो गए। श्रीकृष्ण खुलकर हंस रहे थे। उनकी दन्तपंक्ति सफेद चांदनी में कुन्दकली की भांति प्रभा बिखेर रही थी। गोपिकाओं ने उनके चारों ओर एक घेरा बना लिया। श्रीकृष्ण आगे बढ़े – यमुना जी के पावन पुलिन की ओर। रजत की भांति बालुका-राशि से जगमगा रहा था यमुना का किनारा। यमुना जी के तरल तरंगों का स्पर्श कर वृन्दावन के सुगन्धित पुष्पों की सुगन्धि के साथ पवन मंद-मंद बह रहा था। उसे भी जाने की जल्दी नहीं थी। यह पल लौट कर आये, या न आये। वैजयन्ती माला धारण किये हुए श्रीकृष्ण की छटा असंख्य तारों से घिरे हुए चन्द्रमा सी प्रतीत हो रही थी। श्रीकृष्ण ने पावन यमुना के पवित्र तट पर प्रिय गोपियों के साथ लीला प्रारंभ की। अद्भुत दृश्य था – जीवात्मा और परमात्मा के इस मर्त्यलोक में साक्षात मिलन का।
देवता और गंधर्व भी अपने आप को कहां रोक पाये। मर्त्यलोक में इसके पूर्व नारायण ने ऐसा आयोजन किया ही कब था। चन्द्रमा को गर्व हो रहा था। गोपियों और श्रीकृष्ण के मान-मनौवल का प्रत्यक्षदर्शी सिर्फ वही था। लेकिन यह क्या? देखते ही देखते
आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग गई। स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियां स्वयं बज उठीं। सुगन्धित पुष्पों की वर्षा की झड़ी लग गई। जिस गोपी की जैसी भावना थी, श्यामसुन्दर उसके साथ उसी रूप में विराजमान थे। जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत तित देखहूं वैसी। श्रीकृष्ण यमुना जी की रमण रेती पर व्रज-सुन्दरियों के बीच पीली-पीली सुवर्ण मणियों के बीच नीलमणि-सी छटा बिखेर रहे थे। श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम दुकूल में खोंसी गई मुरली निकाली, पश्चात् सांकेतिक धुन बजाई। पीछे-पीछे भिन्न-भिन्न वाद्यों की गगनभेदी सम्मिश्र ध्वनि गूंज उठी। डांडिया ताल देने लगी। मधुर संगीत वातावरण को गूंजित करने लगा। आकाश में देवताओं ने कुंकुम बिखेरा। रास में तन्मय रात्रि का चन्द्रमा इधर अपनी दिव्य छटा बिखेर रहा था, उधर मधुवन का रास अधिकाधिक रंगता गया। वाद्य चढ़ती लय में गूंजने लगे। समस्त चल-अचल सृष्टि जैसे एकसाथ नृत्य में अपनी सुधबुध खो बैठी हो। अपने-अपने नीड़ों में सोये पक्षी अचानक चौंककर क्षण भर फड़फड़ा उठे और पुनः ऊंघने लगे। श्रीकृष्ण के कंठ की वैजयन्तीमाला निरन्तर झूलती रही। गोपियां तरह-तरह से ठुमक-ठुमक कर अपने पांव कभी आगे बढ़ातीं, तो कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पैर रखतीं, तो कभी बड़े वेग से चाक की भांति घूम जातीं। कभी हाथ उठाकर भाव बतातीं, कभी-कभी विभिन्न मुद्रायें बनातीं। कभी कलात्मक मुस्कान बिखेरतीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। झुकने, बैठने, उठने और चलने की तीव्र गति से उनके आंचल उड़े जा रहे थे, कानों के कुंडल हिल-हिल कर कपोलों पर आ रहे थे। घुंघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं। कुछ ही देर में स्वेद कणों ने मुखमंडल पर अपना स्थान ग्रहण करना आरंभ किया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कमल के पुष्प-दल पर प्रभात की ओस की बूंदें सूरज की पहली किरण को परावर्तित कर रही हों।
नृत्य करते-करते राधा भी थक गई। उसके ललाट पर भी स्वेद-बिंदू उभर आये। श्रीकृष्ण ने अपने अंगवस्त्र से उन्हें पोंछा। सभी सबकुछ भूलकर नृत्य कर रहे थे। बिखेरे गए कुमकुम के साथ-साथ सबका देह-भान भी कबका यमुना पार हो चुका था। कृष्ण और राधा, राधा और कृष्ण, कृष्ण और गोपियां, गोपियां और कृष्ण, सब उन्मनी अवस्था को प्राप्त कर चुके थे। न राधा नारी थी, न श्रीकृष्ण नर। दोनों के दो भिन्न शरीर अब अस्तित्व में ही कहां थे? यही हाल गोपियों का था। देह का भेद समाप्त हो चुका था। नर-नारी के रूप में एक-ही-एक जीवन-ज्योति सबकुछ भुला देनेवाले रास में तल्लीन हो गई थी, एकरूपा हो गई थी।
आकाश में चमकता शरद-पूर्णिमा का थाल के आकार का भावभीना चन्द्र धीरे-धीरे क्षितिज के पास पहुंचने लगा। यमुना की जल-लहरों पर हिलता उसका प्रतिबिंब अब भी लहरों के साथ तालियां बजाता हुआ रासमग्न हो ताल देता हुआ डोल रहा था। समस्त सृष्टि जैसे एक स्वर में गा रही हो – श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेवा। उधर रासमंडल से सिर्फ एक ही ध्वनि आ रही थी – राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण।
बढ़िया !