गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कहीं जीने से मैं डरने लगा तो ?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो ?

ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…

ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो ?

मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो ?

क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?

लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
अगर फिर भी वो मुझको मिला तो ?

यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो

सफ़र जारी है जिसके दम पे ‘कान्हा’
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?

प्रखर मालवीय ‘कान्हा’

प्रखर मालवीय 'कान्हा'

नाम- प्रखर मालवीय कान्हा पिता का नाम - श्री उदय नारायण मालवीय जन्म : चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर 1991 को । वर्तमान निवास - दिल्ली शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम। सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , लफ़्ज़ , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ। 'दस्तक' और 'ग़ज़ल के फलक पर ' नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित। संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन। संपर्क : [email protected] ) 9911568839

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! बहुत ख़ूब !!

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