ग़ज़ल
कहीं जीने से मैं डरने लगा तो ?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?
ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो ?
ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…
ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो ?
मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो ?
क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?
लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
अगर फिर भी वो मुझको मिला तो ?
यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो
सफ़र जारी है जिसके दम पे ‘कान्हा’
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?
— प्रखर मालवीय ‘कान्हा’
वाह ! बहुत ख़ूब !!