धरती तपती लोहे जैसी
गरम थपेड़े लू भी मारे ।
अमलतास तुम किसके बल पर
खिल- खिल करते बाँह पसारे ।
पीले फूलों के गजरे तुम
भरी दुपहरी में लटकाए ।
चुप हैं राहें, सन्नाटा है
फिर भी तुम हो आस लगाए ।
कठिन तपस्या करके तुमने
यह रंग धूप से पाया है ।
इन गजरों को उसी धूप से
कहकर तुमने रँगवाया है ।
इनके बदले में पत्ते भी
तुमने सबके सब दान किये
किसके स्वागत में आतुर हो
तुम मिलने का अरमान लिये ?
तुझे देखकर तो लगता है –
जो जितना तप जाता है ।
इन सोने के झूमर –जैसी
खरी चमक वही पाता है ।
जीवन की कठिन दुपहरी में
तुझसे सब मुस्काना सीखें ।
घूँट –घूँट पी रंग धूप का
सब कुन्दन बन जाना सीखें ।
— रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बहुत सुन्दर कविता !