यशोदानंदन-४०
“हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! आपका यह अद्भुत रूप मन और वाणी का विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत का नियंत्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदय में निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वांछनीय यदुवंशशिरोमणि और स्वामी हैं। प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठान रहित हैं। आपने सृष्टि के प्रारंभ में ही अपनी माया से गुणों की सृष्टि की और उन गुणों को स्वीकार करके आप ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते हैं। आप सर्वशक्तिमान और सत्यसंकल्प हैं। आप दैत्य प्रमथ और राक्षसों का विनाश करने के लिए तथा धर्म की मर्यादा की रक्षा हेतु ही यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानधन हैं। आपके स्वरूप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य और निरन्तर अपने परमानन्द स्वरूप में स्थिर रहते हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सम्मुख माया और माया से उत्पन्न यह संसार-चक्र नित्य निवृत है। ऐसे आप अखंड, एकरस सच्चिदानन्द स्वरूप निरतिशय ऐश्वर्य संपन्न प्रभु का मैं शरणागत हूँ। आप अन्तर्यामी और सबके नियन्ता हैं। आप अपने आप में स्थित और परम स्वतंत्र हैं। जगत और इसके अशेष-विशेषों – भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवक आपकी माया से ही हुई है। इस समय अपनी लीला प्रकट करने के लिए आपने मनुष्य-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और यदु, वृष्णि तथा सात्ववंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ। आपके यशोगान, दर्शन और सान्निध्य से मेरा मन कभी भरा ही नहीं। आप सबके मार्गदर्शक हैं, परन्तु इस समय मैं आपके मार्गदर्शन की धृष्टता कर रहा हूँ।
हे प्रभो! मुझे क्षमा करें। मैंने आपके जन्म का रहस्य क्रूर कंस को बता दिया है। उसने आपके माता-पिता को पुनः बेड़ियों में जकड़कर कारागार में डाल दिया है। वे अतिशय कष्ट प्राप्त कर रहे हैं। हे नारायण! व्रज में आपकी लीला के दिन पूरे हो गए हैं। आपको किसी सीमा में बांधकर रखा नहीं जा सकता। आप अनन्त हैं। इधर आप व्रजवासियों के निश्छल प्रेम में बंधते जा रहे हैं और उधर मथुरा में कंस का अत्याचार सारी सीमायें तोड़ रह है। मथुरा की प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है। समस्त देवता, ऋषि-मुनि आपके व्रज से निकलने की बाट जोह रहे हैं। प्रभो! सारे जगत को दुष्टों से मुक्त करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ही मनुष्य रूप में आप प्रकट हुए हैं। सभी साधुजन शीघ्र ही आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक और स्वयं कंस का वध देखने के लिए आतुर हैं। हे गोविन्द अब विलंब न करें। आपके लिए कौन सा कार्य असंभव है? अब व्रज की सीमाओं से निकलकर मथुरा को प्रस्थान करने का समय उपस्थित हो गया है। हे केशव! दया कीजिए।”
कन्हैया ने देवर्षि की बातें ध्यान से सुनी और मंद-मंद मुस्कुराते हुए आश्वस्त किया – “ऐसा ही होगा देवर्षि।”
जब गीदड़ की मौत आती है, तो वह शहर की ओर भागता है। दैत्य केशी की मृत्यु का समाचार सुन कंस हतप्रभ रह गया। केशी का प्रयोग वह ब्रह्मास्त्र के रूप में करता था। उसके सहारे उसने न जाने कितने समर जीते थे। आजतक वह कभी असफल होकर नहीं लौटा था। ऐसे महापराक्रमी और मायावी का एक बालक के हाथों अन्त! कानों से सुने गए समाचार पर मस्तिष्क ने विश्वास करने से बार-बार इन्कार किया। परन्तु सत्य तो सत्य ही था। अति विश्वस्त गुप्तचरों ने भी श्रीकृष्ण के हाथों केशी के वध की पुष्टि की। कंस के माथे पर बल पड़ गए। चिन्तातुर मथुरा-नरेश राजमहल की वीथियों में देर तक चहलकदमी करता रहा। एक युक्ति अचानक मस्तिष्क में कौंध गई – व्रज के इस बालक को क्यों नहीं मथुरा आमंत्रित करके समाप्त कर दिया जाय़? उसके नेत्रों मे एक चमक सी आ गई और तिर गई एक कुटिल मुस्कान उसके अधरों पर। यह एक अनोखा दांव था जिसे जीतने के प्रति वह शत-प्रतिशत आश्वस्त था। उसके विशेष सचिव अक्रूर जी कभी वसुदेव जी के सबसे प्रिय सखा हुआ करते थे। अनुचरों को भेज उन्हें राजभवन के गुप्त मंत्रणा कक्ष में तत्काल उपस्थित होने का संदेश भिजवाया। अक्रूर अविलंब उपस्थित हुए। उन्हें सम्मान देते हुए कंस ने बड़े प्रेम से अपने पास बिठाया। उनके हाथ अपने हाथ में लेकर शहद मिश्रित वाणी में बोला –
“अक्रूर जी! आप बड़े उदारदानी हैं और मेरे सबसे बड़े शुभेच्छु भी हैं। आप वसुदेव के पूर्व मित्र हैं। समस्त मथुरा की प्रजा में अत्यन्त आदरणीय भी हैं। भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवों में आप से बढ़कर मेरे हित की कामना करने वाला कोई दूसरा नहीं है। एक मित्रोचित कार्य के निमित्त मैंने आपको आमंत्रित किया है। कार्य बहुत कठिन है, इसलिए मेरे परम सुहृद! मैंने आपका आश्रय लिया है। आपको विदित हो कि व्रज में नन्द बाबा के यहां पल रहा बालक श्रीकृष्ण, जिसने कुछ ही दिन पूर्व अपराजेय केशी का वध किया है, वास्तव में देवकी की आठवीं सन्तान है। देवताओं ने उसके हाथों मेरी मृत्यु निश्चित कर रखी है। मैं देवताओं द्वारा निर्धारित किसी नियम को नहीं मानता। मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है। फिर भी मैं दुष्ट देवताओं को कोई अवसर प्रदान नहीं कर सकता। अभी वह बालक है। बुद्धिमान मनुष्य रोग और शत्रु को कभी आश्रय नहीं देते। इन्हें आरंभ होते ही समाप्त कर देना चाहिए। अतः उसके वय का विचार न करते हुए तत्काल उसकी समाप्ति का उपाय करना चाहिए। उसके साथ रोहिणी का पुत्र बलराम भी नन्द जी के यहां आश्रय पाए हुए है। इन दोनों ने बाल्यकाल में ही अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया है। युवावस्था को प्राप्त होने के पश्चात्ये दुर्जेय हो सकते हैं। अतः इसी समय इनका विनाश कर देना राजधर्म के अनुकूल है। आपसे अनुरोध है कि इन दोनों बालकों को उनके सभी मित्रों के साथ धनुष-यज्ञ के दर्शन और मथुरा की शोभा देखने के लिए आमंत्रित कर यहां ले आइये। सारे जगत में आप वसुदेव के परम हितैषी और परम मित्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। आप द्वारा व्रज में जाकर उन्हें आमंत्रित करने में किसी को भी कोई सन्देह नहीं होगा और नन्द जी सहर्ष उनको यहां भेज देंगे। उनके लिए आप मथुरा से उत्तम भेंट ले जाइये। उनके यहां आते ही मैं अपने काल के समान कुवलयापीड हाथी से कुचलवाकर उनका अन्त करा दूंगा। यदि कदाचित उस हाथी के आक्रमण से वे बच निकले, तो मैं वज्र के समान शक्तिशाली और संसार में जिसका जोड़ नहीं है, ऐसे मल्ल मुष्टिक और चाणूर द्वारा मल्लयुद्ध में उनके प्राण ले लूंगा। उनका वध हो जाने पर वसुदेव, वृष्णि, भोज और कुशार्हवंशी उनके भाई-बन्धु शोक से हतबल हो जायेंगे। पश्चात् मैं स्वयं उनका वध कर दूंगा। मेरा पिता उग्रसेन, वैसे तो वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया है, फिर भी राजलिप्सा ज्यों की त्यों है। मैं श्रीकृष्ण वध के पश्चात् उसको, उसके भाई देवक और जो-जो मुझसे द्वेष करने वाले हैं, चुन-चुनकर तलवार के घाट उतार दूंगा। फिर मथुरा और इस पृथ्वी पर शासन करने वाला मैं होऊंगा और आप होंगे मेरे महामंत्री। इस पृथ्वी का अकण्टक साम्राज्य दीर्घ अवधि तक हम भोगेंगे। मगध के महाराज जरासंध मेरे श्वसुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे परम प्रिय सखा। शंबासुर, नरकासुर और वाणासुर मेरे परम मित्र हैं। वे प्रत्येक कार्य करने के लिए मुझसे परामर्श करते हैं और तदनुसार आचरण करते हैं। ये सदैव मेरी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। मैं इनको साथ लेकर समस्त देवताओं और पक्षपाती नरपतियों को मारकर चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि के साथ संपूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित कर लूंगा। अपनी ये सारी गुप्त और महत्त्वाकांक्षी योजनायें परम सुहृद होने के नाते सिर्फ आपको बताई है। आप मेरे इस महान कार्य में मेरे सहयोगी बनिये तथा व्रज के लिए शीघ्र प्रस्थान कीजिए।”
बढ़िया !