उपन्यास अंश

यशोदानंदन-४२

अक्रूर जी कुछ क्षणों तक मौन रहे। वे स्पष्ट शब्दों में कैसे बताते कि किस निमित्त उन्होंने यात्रा की है? स्वयं को संयत करते हुए उन्होंने नन्द जी को संबोधित किया –

“हे नन्दराज! तुम्हारे इन दोनों बालकों के अतुलनीय पराक्रम और अद्भुत सौन्दर्य की चर्चा व्रज की सीमाओं के बाहर भी जन-जन की जिह्वा पर है। समस्त मथुरावासी इनके दर्शन के लिए आतुर हैं। महाराज कंस ने अपने महल के प्रांगण में एक धनुष-यज्ञ का आयोजन कर रखा है। आजतक कोई वीर उसे अपने स्थान से तिल भर भी डिगा नहीं पाया है। उस दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले को सर्वोच्च राजकीय सम्मान देने की महाराज ने घोषणा की है। उसी धनुष-यज्ञ में आपके इन बालकों को अपने मित्रों के साथ सम्मिलित होने के लिए उन्होंने मेरे द्वारा राजकीय निमंत्रण भेजा है। वे वहां जायेंगे, तो सुन्दर नगरी मथुरा की शोभा भी देखेंगे और धनुष-यज्ञ में सम्मिलित भी होंगे। मैं इन्हें पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ अपने संग ले जाने के लिए यहां उपस्थित हुआ हूँ।”

एक शिशु को बब्बर शेर की कन्दरा में भेजना! नन्द बाबा के माथे पर बल पड़ गए। सिर चक्कर खाने लगा। मस्तिष्क ने सोचना बंद कर दिया। हृदय की गतिविधियां बढ़ गईं। वे अपने आसन पर बैठे-बैठे निढाल हो गए। श्रीकृष्ण और बलराम ने उन्हें संभाला। सेवक शीतल जल लेकर आए। नन्द बाबा कुछ ही क्षणों में संभल गए। उन्होंने उत्तर देने के लिए एक रात्रि का समय मांगा।

नन्द बाबा ने बिना विलंब किए अपने विश्वस्त परामर्शदाताओं कि आपात्‌ बैठक बुलाई। अक्रूर जी के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार-विमर्श हुआ। सबने एक स्वर से श्रीकृष्ण-बलराम को मथुरा भेजने से मना कर दिया। नन्द बाबा घोर असमंजस की स्थिति में थे। श्रीकृष्ण को न भेजने का अर्थ था – राजाज्ञा का उल्लंघन। कंस द्वारा दंडस्वरूप व्रज पर आक्रमण की कल्पना से ही वे कांप जा रहे थे। श्रीकृष्ण को मथुरा भेजने का अर्थ था – यमराज के मुंह में अपने ही पुत्र को स्वयं भेजना। श्रीकृष्ण ने उनके भावों को ताड़ लिया। सभी सभासदों की शंका का निवारण करते हुए उन्होंने अपना संबोधन आरंभ किया –

“महाराज नन्द और पिता के सदृश्य सभी सभासदगण! आपकी भावनाओं और मेरे प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण उत्पन्न आपकी दुश्चिन्ताओं को मैं भलीभांति समझ रहा हूँ। परन्तु यह समय भावनाओं के प्रवाह में बहकर किसी बड़ी विपत्ति को निमंत्रण देने का नहीं है। आपलोग मुझे मथुरा जाने से न रोकें। कल्पना कीजिए – मैं मथुरा नहीं गया। राजाज्ञा के उल्लंघन के अपराध की सजा देने के लिए कंस व्रज पर अवश्य आक्रमण करेगा। उसके साथ उसके मित्र राजागण और उसकी सेना भी होगी। हमारे पास कोई सेना नहीं है। आपको क्या लगता है, मैं समर्पण कर दूंगा? इस स्थिति में मुझे और भैया दाऊ को ही युद्ध करना पड़ेगा। विजयश्री चाहे जिस पक्ष का आलिंगन करे, व्रज की तबाही निश्चित है। हमारे गोधन का अपहरण किया जायेगा। हमारी स्त्रियों को अपमानित किया जायेगा और मेरे सभी गोप-गोपियों का निर्ममता से वध किया जायेगा। क्या वह आसन्न महासमर और उससे उत्पन्न परिणाम आपको स्वीकार है? हमारे पास दूसरा विकल्प है – राजाज्ञा का पालन किया जाय और अक्रूर जी के साथ मुझे और भैया दाऊ को मथुरा भेजा जाय। यह त्रुटिहीन विकल्प होगा। हमारे वहां जाने से व्रज सुरक्षित रहेगा। आप सभी ने संकट की घड़ी में सदैए मेरा साथ दिया है। मेरी ही सलाह पर आप सबने इन्द्र के बदले महापर्वत गोवर्धन की पूजा की। इन्द्र ने गोकुल के विनाश के लिए क्या नहीं किया। आपके सहयोग से हमने गोवर्धन पर्वत को धारण किया। किसी ने अपना हाथ लगाया, किसी ने लकुटी। इन्द्र की चुनौती हमने स्वीकार की और उन्हें समर्पण के लिए विवश किया। मथुरा में भी मेरे साथ वही ग्वाल-बाल और वीरवर दाऊ साथ में होंगे। हम साक्षात काल का भी सामना कर विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ हैं। कंस की औकात ही क्या है? क्या मेरे जन्म के पूर्व गोकुल में इतने दैत्यों और असुरों ने इतना आतंक मचाया था? जहां तक मुझे ज्ञात है, कभी नहीं। क्या वे दैत्य, असुर और राक्षस स्वेच्छा से यहां आए थे? कदापि नहीं। वे सबके सब कंस के अनुचर थे। उसी के द्वारा भेजे गए थे। क्या वे मेरा और दाऊ का बाल बांका भी कर पाए? सारी घटनायें आपके नेत्रों के सामने घटीं। फिर आज मुझपर, दाऊ पर और मेरी मित्र-मंडली पर अविश्वास का कारण क्या है? क्या आप लोगों ने हमें निर्बल मान लिया है? आपके हृदय में मेरे लिए अथाह प्रेम है। इस प्रेम के वशीभूत आप सभी श्रेष्ठजन मेरे प्रति दुश्चिन्ताओं से सदा ही ग्रस्त रहते हैं। इसमें आपका कोई दोष नहीं है। अगर मैं माता यशोदा से पूछकर कालिया-मर्दन के लिए जाता, तो क्या वे जाने देतीं? कदापि नहीं। अगर मैं हठ करता, तो वे रो-रोकर अपना प्राण ही त्याग देतीं। हे मेरे परम आदरणीय पिताश्री एवं सभासद्गण! आप सभी मुझपर उतना ही विश्वास करें जितना मुझसे प्रेम करते हैं। मुझे बन्धु-बान्धवों समेत मथुरा जाने की सहर्ष अनुमति देने का कष्ट करें। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वहां जो भी हमारा अनिष्ट करने का प्रयास करेगा, वह विनाश को प्राप्त होगा – वह व्यक्ति कंस ही क्यों न हो।”

पूरी सभा ने श्रीकृष्ण की ओजपूर्ण और विश्वास से ओतप्रोत वाणी सुनी। यमुना के तीर पर कदंब के नीचे सुमधुर मुरली की धुन बजानेवाला चंचल, नटखट शिशु आज अचानक एक अजेय योद्धा, कुशल नीतिज्ञ और सम्मोहक वक्ता के रूप में दिखाई पड़ रहा था। थोड़ी देर तक सभा में खुसफुसाहट होती रही। अन्त में सबने एक स्वर से श्रीकृष्ण के प्रस्ताव को अनुमोदित कर दिया। बस, नन्द बाबा ने एक शर्त रख दी – “पुत्र कन्हैया! मथुरा-गमन के पूर्व अपनी माँ से भी अनुमति प्राप्त कर लेना।”

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-४२

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक !

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