यशोदानंदन-४३
नन्द बाबा ने ब्रह्मास्त्र चला ही दिया। सारे संसार को समझाना आसान था लेकिन मैया को? बाप रे बाप! वे तो अपनी सहमति कदापि नहीं देंगी। श्रीकृष्ण को बाबा ने धर्मसंकट में डाल ही दिया। परन्तु आज्ञा तो आज्ञा थी। अनुपालन तो होना ही था। दोनों भ्राता अन्तःपुर में पहुंचे। वहां माता यशोदा और रोहिणी एक साथ उपस्थित थीं। मथुरा-गमन का समाचार दोनों माताओं को ज्ञात हो चुका था। श्रीकृष्ण को देखते ही मातु यशोदा कटी हुई कदली की भांति अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ीं। दोनों भ्राताओं ने सहारा देकर उन्हें उठाया। उनके मुखमंडल पर शीतल जल का छिड़काव किया। उनकी चेतना वापस लौट आई। दुःख से कातर हो टूटते स्वर में बोलीं –
“पुत्र कन्हैया! यदि तुम्हारा जन्म नहीं होता, तो सिर्फ बन्ध्या रहने का ही दुःख होता। वह मैं सह लेती। आज इस समय जो दुःख प्राप्त हो रहा है, इससे वह कम ही होता। तुमको मैं स्वयं से अलग नहीं कर सकती। तुम दोनों मुझे प्राणों से भी प्रिय हो। तुम दोनों ही अबोध बालक हो। तुम तो गुरुजनों और ब्राह्मणों को विधिवत प्रणाम करना भी नहीं जानते। अभी तो तुम्हारे दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं। तुम्हें महलों और राजा के नियम-कानून तक पता नहीं है। ऐसे में मथुरा जाकर क्या करोगे? हे माधव! मैंने तुम्हें बड़े दुःखों से पाला है। तू मुझ निर्धन का सबसे बड़ा धन है। मैं तुम्हें देखकर परम सुख का अनुभव करती हूँ। तुम्हें आधे पल के लिए भी अपने से अलग नहीं कर सकती। तुम मुझसे बिछड़ न जाओ, इसलिए सोते समय क्षण-क्षण स्पर्श कर आश्वस्त होती हूँ। मैं तुम्हें निरन्तर देखने पर भी कभी तृप्त नहीं होती हूँ। मथुरा में तो असुरों का समूह बसता है। वहां हाथों में कृपाण लिए तो हत्यारे योद्धा मार्ग में विचरते रहते हैं। यदि मैं तुम्हें मथुरा नहीं भेजूं, तो अक्रूर हमारा क्या कर लेगा? उसे बैरंग लौटा दो। मेरे लाल! मैं तुम्हें मथुरा नहीं जाने दूंगी, भले ही कंस मेरे प्राण ले ले। व्रज में कोई हमारा हितैषी नहीं रह गया है। कैसे सभा ने इस कोमल बदन शिशु को मथुरा भेजने का निर्णय ले लिया? सुफलक सूत अक्रूर यमराज के रूप में गोकुल आया है। वह भले ही मेरे प्राण हर ले, मैं अपने हृदय के टुकड़े को मथुरा नहीं भेजूंगी। कंस चाहे तो हमारा राज्य छीन ले, सारे गोधन छीन ले, मुझे पकड़कर बन्दीगृह में डाल दे, पर मेरे पुत्रों को मुझसे दूर न करे। मेरे लिए इतना सा ही सुख बहुत है कि कमल के समान सुन्दर नेत्रों वाला मेरा कृष्ण मेरी आँखों के सामने खेलता रहे। मैं दिन में उसका मुख देखते हुए और रात में उसे अपने हृदय से लगाए जीवित रहूंगी। मैं अपने पुत्र से बिछड़ कर मर जाऊंगी, किन्तु यदि दुर्भाग्य से जीवित भी रह गई, तो मैं हंसकर किसे हांक लगाऊंगी।”
शोकविह्वल माता के अधर बोलते-बोलते सूख गए। मुख कुम्हला गया वे अचेत सी हो गईं। दोनों भ्राताओं ने शीघ्र उपचार किया। श्रीकृष्ण ने उनका सिर अपनी गोद में लिया और दाऊ ने पैर। दोनों अश्रुपूरित नेत्रों से माँ को निहार रहे थे और शीतल जल का छिड़काव उनके आनन पर कर रहे थे। दासियां हाथ बांधे खड़ी थीं, परन्तु दोनों भाइयों ने किसी को अवसर नहीं दिया। कुछ ही क्षणों में चेतना लौट आई। माता के अधरों से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे –
“मेरे श्यामसुन्दर! मेरे लाल! मेरे कृष्ण कन्हैया! मेरे गोविन्द! मुझे छोड़कर मत जाओ। मैं अब कभी भी तुम्हें कोई दंड नहीं दूंगी, चाहे तुम व्रज के सारे गोधन चुरा कर यमुना जी में प्रवाहित कर दो। मैं कभी कान नहीं उमेठूंगी। तुम्हें कभी ओखल से नहीं बांधूंगी। तुम्हें पूरी स्वतंत्रता दूंगी। बस सदैव मेरी आँखों के सम्मुख रहो। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरे धन! मेरे पास रहो।”
उधर माता रोहिणी अलग से विलाप कर रही थीं – “श्रीकृष्ण और बलराम! ये दोनों भ्राता ही मेरे जीवन हैं। मैं इन्हें स्वयं से अलग नहीं कर सकती। क्या व्रजभूमि सज्जन पुरुषों से सूनी हो गई है? कोई तो मेरे इन बालकों को मथुरा जाने से रोक ले। जब से अक्रूर आया है, ये भी अत्यन्त निष्ठुर हो गये हैं। दोपहर का कलेवा भी इन दोनों ने हमारे साथ नहीं लिया है। आज रात्रि-प्रहर ये दोनों हमारे सम्मुख उपस्थित हुए हैं। हे पुत्रद्वय! उस क्रूर कंस के पास जाने में भले ही तुम्हें प्रसन्नता हो रही हो, पर हम तो तुम्हारे बिना मर जायेंगी।”
श्रीकृष्ण और बलराम एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि माताओं को किस विधि सांत्वना दें। प्रेम के वशीभूत दोनों चित्रवत बैठे रहे। आँखों से निरन्तर अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। आँसू की कुछ बूंदें मातु यशोदा के आनन पर भी गिरीं। उष्ण आँसुओं के स्पर्श से माता अचानक उठ बैठीं। कन्हैया को हृदय से लगाते हुए बोलीं –
“मेरे लाल! मेरे धन! तुम्हारी आँखों में आंसू देखने के पूर्व मैं मर क्यों नहीं गई? मैं इन कमल नयनों में प्रसन्न्ता के सिवा कुछ नहीं देख सकती। कभी आंसू का एक बूंद भी इन नयनों में नहीं देखा है। मैं अभागी हूँ। मेरे कारण मेरे दोनों लाल बिलख-बिलख कर रो रहे हैं। पता नहीं ईश्वर किस जन्म के पापों की सजा आज मुझे दे रहा है। मेरे लाल! मत रो। तुम्हें जो प्रिय हो, वही करो। मैं तुम्हारे मार्ग में कोई अवरोध उपस्थित नहीं करूंगी। क्या करूं? मैं अपने हृदय से विवश हूँ। यह तुमसे बिछड़ने की आशंका मुझे बलहीन बनाए दे रही है। लेकिन मैं तुम्हारे लिए सारे कष्ट सहूंगी। मेरे प्राणधन! मैं तुम्हारे मुख से तुम्हारा निर्णय सुनना चाहती हूँ।”
श्रीकृष्ण ने उत्तरीय से अपने आंसू पोंछे। अश्रु से भींगे माता का मुखमंडल भी अपने पीतांबर से पोंछा और स्नेहमिश्रित वाणी में उन्होंने संबोधित किया –
“माते! मुझे न तो राज्य की, न पृथ्वी की, न स्वर्ग की और न ही किसी तरह के भोग की इच्छा है। तुम्हारे चरण-कमलों में मुझे जो सुख प्राप्त होता है, उसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए। परन्तु माते! मनुष्य के जीवन का प्रयोजन मात्र अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए नहीं है। वही सच्चा मनुष्य है जो देश, धर्म और जाति के लिए अपने प्राण न्योछवर करने को सदैव तत्पर रहे । माते! तुम वीर प्रसविनी वीर माता हो। एक वीर माता जिसके लिए पुत्र उत्पन्न करती है, वह अवसर उपस्थित हुआ है। क्रूर कंस के अत्याचार से सारी पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर रही है। समस्त ऋषि-मुनि और देवता पलायन कर रहे हैं। पूरी मथुरा में यज्ञ-हवन-कीर्तन और धर्माचरण प्रतिबन्धित है। उसका अन्त सन्निकट है। माँ सरस्वती की प्रेरणा से ही उसने हम दोनों भ्राताओं को धनुष-यज्ञ के लिए आमंत्रित किया है। हे मेरी प्यारी मैया! तनिक सोचो तो सही – अगर माता कौशल्या ने प्रभु श्रीराम को वनगमन की अनुमति नहीं दी होती, तो रावण का संहार कैसे होता? अपने अगाध स्नेह-प्रेम और अतुलित वात्सल्य के कारण हम दोनों भ्राताओं को कोमल गात शिशु समझ रही हो। यथार्थ में हम वैसे नहीं हैं। तुम्हारे आशीर्वाद और तुम्हारी प्रेरणा से ही हमने व्रज में रहते हुए भी अनेक असुरों का बड़ी सुगमता से वध किया है। माते! इस विश्व में ऐसा कोई देव, असुर, नाग, गंधर्व या मनुष्य नहीं है जो हमें किसी तरह की क्षति पहुंचा सके। तुम्हारी दी हुई शक्ति, संस्कार और सुविचार के सहारे हम बड़े से बड़े संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकते हैं। तुम तनिक भी अधीर न होओ। शरीर और मन को संयत करो। तुम श्रीकृष्ण की माँ हो। जबतक यह पृथ्वी, यह आकाश, यह सूर्य, यह चन्द्रमा, ये ग्रह-नक्षत्र अस्तित्व में रहेंगे, तुम्हें विश्व की सर्वाधिक ममतामयी माँ के रूप में याद किया जायेगा। मैं यशोदानन्दन हूँ और रहूंगा। तेरी कीर्ति सदैव अमर रहेगी। मुझे कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने दो माँ। तुम्हारा पुत्र कन्हैया सदैव तुम्हारा ऋणी रहेगा।”
बहुत मार्मिक प्रसंग.