यशोदानंदन-४६
अतीत कि स्मृतियों को याद करते-करते रथ कब मथुरा के राजपथ पर दौड़ने लगा, कुछ पता ही नहीं चला। शीघ्र ही यादवों की राजधानी मथुरा दृष्टिपथ में आ गई। अयोध्या के सूर्यवंशी सम्राट श्री रामचन्द्र के भ्राता शत्रुघ्न ने इसे बसाया था और नाम दिया था – मधुपुरी। चन्द्रवंशी यादवों ने इसे जीतकर इसका नाम रखा – मधुरा। समय के प्रवाह में मधुरा ही मथुरा बन गई।
मथुरा के राज प्रासादों के ऊंचे स्वर्णिम कंगूरे एवं मन्दिरों के गोपुर के स्वर्ण-कलश अब स्पष्ट दिखाई पड़ रहे थे। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने ग्वाल-बालों के साथ नगर में प्रवेश किया। सभी ग्वाल-बालों की आँखें आश्चर्य से फट-सी गईं। ऐसा वैभवशाली नगर! जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। नगर का वह अनुपम सौन्दर्य, अद्वितीय शोभा वे अपनी आँखों से देख रहे थे – मंत्रमुग्ध होकर।
नगर के परकोटे में स्फटिक मणि के ऊंचे-ऊंचे गोपुर और उसमें लगे थे सोने के किवाड़। नगर के चारों ओर तांबे और पीतल की चहारदीवारी थी। स्थान-स्थान पर सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन बरबस ध्यान खींच लेते थे। प्रशस्त और स्वच्छ राजपथ, स्वर्ण से सजे हुए चौराहे, संभ्रान्तों के महल, प्रजा वर्ग के सभा भवन और व्यवस्थित ढंग से निर्मित सामान्त जनों के आवास भी नगर की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक, नीलम, मूंगे, मोती और पन्नों से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श सतरंगी ज्योति बिखेर रहे थे। कोयल, कबूतर, चकोर, पपीहे, तोते, मोर आदि पंछी अपने-अपने स्वर में वातावरण को संगीतमय बना रहे थे। सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर सुगन्धित छिड़काव किया गया था। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, अंकुरित जौ, खील और चावल सजा कर रखे थे। घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन से चर्चित जल से भरे कलश विद्यमान थे। सभी घर फूल, दीपक, नवीन कोंपलें, फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्ष से सुसज्जित थे। प्रत्येक घर पर आम के पत्तों तथा रेशमी वस्त्रों के बन्दनवार एवं छोटी-छोटी रंग-बिरंगी पताकायें सुशोभित थीं।
नगर में प्रवेश के उपरान्त श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी को रथ रोकने का निर्देश दिया। रथ रुक गया। नीचे उतरते हुए श्रीकृष्ण ने कहा –
“चाचाजी! हमलोग मथुरा नगरी में प्रवेश कर चुके हैं। अब आप अपना रथ लेकर अपने निवास पर जायें। हमलोग अपने मित्रों के साथ नगर-दर्शन हेतु पैदल ही जायेंगे।”
अक्रूर जी श्रीकृष्ण को अपने निवस-स्थल पर ले जाना चाह रहे थे। उनकी योजना विफल हो रही थी। दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने याचना की –
“प्रभो! आप दोनों के बिना मैं अपने घर नहीं जा सकता। मैं आपका भक्त हूँ। आप मुझे मत छोड़िये। हे भक्तवत्सल! आप बलराम जी, ग्वाल-बालों और अन्य आत्मीयों के साथ मेरे घर चलकर मुझे सनाथ कीजिये। हम गृहस्थ हैं। अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणों की धोवन पवित्र गंगा से अग्नि, देवता, पितर – सब के सब तृप्त हो जाते हैं। प्रभो! आपके चरणों को पखारकर महादानी दानवेन्द्र ने अमर और विपुल यश तथा परम ऐश्वर्य प्राप्त किया। आप देवताओं के भी आराध्य हैं। संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। हे नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझ अकिंचन का अनुरोध स्वीकार कर लीजिए। मेरे घर पधारने का कष्ट कीजिये।”
श्रीकृष्ण ने बहुविधि अक्रूर जी को समझाया, परन्तु वे कुछ भी सुनने को तैयार न थे। उनकी आँखों से अश्रु-धारा बह निकली। अन्त में उन्हें आश्वासन देना ही पड़ा –
“चाचाजी! मैं जिस निमित्त मथुरा में आया हूँ, कृपया उसे पूर्ण हो लेने दें। मथुरा को आततायियों से मुक्त करने के पश्चात् आपके घर आकर आपका आतिथ्य स्वीकार करूंगा। लक्ष्य-प्राप्ति के पूर्व मथुरा नगर में विश्राम न करने के लिए संकल्पबद्ध हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिये कि हम दोनों भ्राता शीघ्रातिशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त कर अपने सभी सुहृदजनों का प्रिय कर सकें।”
श्रीकृष्ण का उत्तर सुन अक्रूर जी उदास हो गए। वे समझ गए कि श्रीकृष्ण का निर्णय अटल है जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उन्होंने दोनों भ्राताओं को आशिर्वाद दिये तथा भारी मन से विदा ली। वे सीधे कंस के राजमहल में गये और कंस से श्रीकृष्ण और बलराम को ले आने का समाचार निवेदित किया।
संध्या का आगमन हो रहा था। रात्रि में मथुरा नगर का भ्रमण निरापद नहीं था। श्रीकृष्ण ने नगर के बाहर अपना डेरा डाला। गोकुल से पर्याप्त मात्रा में खाद्य-सामग्री साथ लेकर ही ग्वाल-बालों ने यात्रा आरंभ की थी। सबके रहने, खाने, पीने, सोने और सुरक्षा-व्यवस्था की निगरानी स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम ने की। थके ग्वाल-बाल शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में समा गए। श्रीकृष्ण, भैया दाऊ के साथ अगले दिन की योजना बनाने में व्यस्त हो गये। कंस की पूरी योजना अक्रूर जी के माध्यम से उन्हें पहले ही ज्ञात हो चुकी थी।
दूसरे दिन तीसरे प्रहर बलराम जी और अपने समस्त मित्रों के साथ नगर-दर्शन के बहाने श्रीकृष्ण ने मथुरा में प्रवेश किया। उनके आगमन का समाचार विद्युत-वेग से मथुरा में एक दिन पूर्व ही पहुंच गया था। गोकुल में उनके द्वारा संपादित कार्य की यशोगाथायें मथुरावासियों की जिह्वा पर थीं। दबी जुबान यह रहस्य भी मथुरा में उद्घाटित हो गया था कि श्रीकृष्ण ही वसुदेव-देवकी कि आठवीं सन्तान हैं। मुक्ति किसे प्यारी नहीं होती? समस्त नगरवासी श्रीकृष्ण के स्वागत में पलक-पावड़ें बिछाये प्रतीक्षारत थे। श्रीकृष्ण ने राजपथ से ही मथुरा में प्रवेश का निर्णय लिया। नगर की नारियां झटपट अटारियों पर चढ़ गईं। श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष-दर्शन की आकांक्षा में सबने शीघ्रता की। वह अमूल्य पल शृंगार में लगने वाले समय के कारण कही हाथ से निकल न जाय। शीघ्रता में किसी ने अपने वस्त्र और गहने उल्टे पहन लिये, किसी ने भूलवश कुंडल, कंगन आदि अलंकार धारण तो किये, परन्तु एक ही और चल पड़ीं श्यामसुन्दर के दर्शन के लिए। कुछ रमणियों ने सिर्फ एक आँख में अंजन लगाया, तो किसी ने एक पग में ही पायल पहनी। कुछ ने भोजन त्यागा, तो किसी ने स्नान। अपने परिवारजनों से बेपरवाह रमणियां अपनी अटारियों पर चढ़ गईं और कुछ अपने दरवाजे पर खड़ी हो गईं। मथुरा के समस्य युवक, वृद्ध, बालक राजपथ के किनारे पंक्तिबद्ध हो मुग्धभाव से खड़े थे।