यशोदानंदन-४७
श्रीकृष्ण, बलराम और मित्रों के साथ मंद स्मित बिखेरते हुए मंथर गति से राजपथ पर अग्रसर हो रहे थे। वे गजराज की भांति चल रहे थे। मथुरावासियों ने श्रीकृष्ण के अद्भुत लक्षणों की ढेर सारी चर्चायें सुन रखी थीं। जब प्रत्यक्ष रूप से राजपथ पर आगे बढ़ते हुए भ्राताद्वय के दर्शन प्राप्त हुए, तो भावातिरेक की सीमा नहीं रही। हर्ष से उन्हें रोमांच हो आया। अटारियों पर चढ़ी रमणियों ने पुष्प-वर्षा कर अपने आनन्द को अभिव्यक्ति दी। दूसरी ओर पास-पड़ोस के सभी ब्राह्मण पुष्प और चन्दन लेकर बाहर आये और पूर्ण भक्ति तथा आदर भाव से उनका स्वागत किया।
श्रीकृष्ण-बलराम की टोली आपस में हास-परिहास करते हुए मस्ती से राजपथ पर बढ़ रही थी। अचानक मार्ग पर एक धोबी दिखाई पड़ा। वह अहंकार और अकड़ में ऐसे चल रहा था, मानो मथुरा का राजा हो। उसके साथ उसके अनुचर भांति-भाति के वस्त्रों का बोझ उठाये उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। मार्ग में अनेक श्रेष्ठ जन भी दीख रहे थे। वह किसी को नमस्कार भी नहीं कर रहा था, उल्टे सबसे अभिवादन की अपेक्षा कर रहा था। वह कंस का प्रधान धोबी था। उस समय वह राजा के वस्त्रों को धो-सुखाकर राजभवन जा रहा था। उसकी अकड़ देखने योग्य थी। श्रीकृष्ण अपनी मंडली के साथ उसका मार्ग रोककर खड़े हो गये और अत्यन्त विनम्रता से बोले –
“हे भ्राता! हमलोग गोकुल से मथुरा-दर्शन के लिए आए हैं। महाराज कंस ने हमें धनुष-यज्ञ हेतु आमंत्रित किया है। हम ग्रामीण बालक हैं। हमारे पास अच्छे वस्त्र नहीं हैं। कृपा करके तुम कुछ अच्छे वस्त्र हमें दे दो जो राजमहल की गरिमा के अनुसार हों। हम उन्हें पहनकर महल में जायेंगे, तो राजा अत्यन्त प्रसन्न होंगे। तुम्हारी उदारता की प्रशंसा हमलोग महाराज से भी करेंगे। निश्चय ही वे तुम्हारा कल्याण करेंगे।”
श्रीकृष्ण का आग्रह सुन धोबी भड़क गया। वह कन्हैया की मांग का मर्म नहीं समझ सका। राजा कंस का प्रधान सेवक होने के कारण वह मतवाला हो रहा था। वह क्रोध में भरकर आक्षेप करते हुए बोला –
“तुमलोग गोकुल के गंवार हो। सदा से पहाड़, वन और कन्दराओं में रहते आए हो। तुमलोगों के शरीर पर ये फटे-पुराने वस्त्र ही अच्छे लगते हैं। मैं महाराज कंस का प्रधान सेवक हूँ। इस समय उनके दिव्य वस्त्र लेकर राजमहल जा रहा हूँ। तुमलोग अत्यन्त उद्दंड प्रकृति के बालक हो, तभी तो राजपथ पर प्रधान सेवक का मार्ग रोककर राजवस्त्रों की मांग कर रहे हो। अरे मूर्खो! जाओ भाग जाओ। अगर कुछ दिन और जीने की इच्छा रखते हो, तो इन राजवस्त्रों की सपने में भी कामना मत करना। सामने देखो – हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिए राज-कर्मचारी पहरा दे रहे हैं। मेरे एक इशारे पर वे तुम्हारे जैसे उच्छृंखलों को बन्दी बना लेंगे और हत्या कर देंगे। अपने प्राणों से अगर तनिक भी मोह हो, तो शीघ्र चलते बनो।”
धोबी और भी न जाने कैसी-कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा था। श्रीकृष्ण ने तत्क्षण उसे दंड देने का निर्णय लिया। अपनी दाहिनी हथेली के निचले भाग को तलवार की तरह उसकी गर्दन पर दे मारा। उसका सिर पलक झपकते धड़ से अलग होकर धरती पर गिर पड़ा। उसके अनुचर वस्त्रों का गठ्ठर राजमार्ग पर छोड़कर इधर-उधर भाग गए। श्रीकृष्ण और बलराम ने अपनी पसंद के वस्त्र पहन लिए। सभी ग्वाल-बालों ने भी अपनी-अपनी पसंद के राजवस्त्र धारण किए। शेष वस्त्रों को वहीं राजपथ पर छोड़कर मंडली आगे बढ़ गई। राजमार्ग पर भ्रमण कर रहे पथिकों ने सारा दृश्य अपनी आँखों से देखा। विस्मय से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। न तीर, न तलवार, न गदा, न कटार! हथेली के हल्के प्रहार से किसी के सिर को धड़ से अलग होते उन्होंने पहली बार देखा था। अबतक उन्होंने गोकुल के इस बालक के अलौकिक कृत्यों की सिर्फ कहानियां सुनी थीं, आज प्रत्यक्ष देख भी लिया। मार्ग के किनारे दर्शनार्थियों की भीड़ अचानक बढ़ गई। सभी अपने मुक्तिदाता कि एक झलक पाने को आतुर थे। गोकुल की बालमंडली अभी कुछ ही आगे बढ़ी थी कि भीड़ को चीरते हुए एक व्यक्ति बाहर आया और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनके सम्मुख खड़ा हो गया। अत्यन्त विनीत स्वर में उसने प्रार्थना की –
“हे नन्दलाल! आपके अद्भुत कृत्यों की चर्चा ही कलतक सुनी थी। आज अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देख भी लिया। मैं अत्यन्त सौभाग्यशाली हूँ। यह मेरे पिछले जन्म के पुण्यों का फल ही है जो अचानक आपके दर्शन हुए। मैं महाराज कंस का सेवक हूँ और दर्जी का काम करता हूँ। आपने जो वस्त्र पहन रखे हैं, वे मेरे द्वारा ही सिले गए हैं। ये वस्त्र आपके बदन पर ढीले-ढाले लग रहे हैं। अगर आप हमें कुछ समय दें, तो मैं इन्हें ठीक करके आपको पहना दूं। मेरा जीवन धन्य हो जायेगा। भले ही मेरे इस काम के लिए क्रूर कंस कल मृत्य-दंड ही क्यों न दे दे, मुझे तनिक भी कष्ट नहीं होगा। हे प्रभु! मुझे कृतार्थ कीजिये।”
श्रीकृष्ण अपनी विश्वमोहिनी मुस्कान लिए उसके साथ हो लिए। दर्जी ने उन रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्रों को श्रीकृष्ण समेत सभी ग्वालबालों के शरीर पर इतने सटीक और सुन्दर ढंग से सजा दिया कि सब अत्यन्त आकर्षक ढंग से सुसज्जित हो गए। उसकी भक्ति और प्रेम ने श्रीकृष्ण का मन मोह किया। उन्होंने उसे इस लोक में भरपूर धन-संपत्ति, बल-ऐश्वर्य, स्मृति और इन्द्रिय संबन्धी अनेक शक्तियां प्रदान की साथ ‘सारूप्य’ मुक्ति का वरदान भी दिया।
उस दिन मथुरा के राजपथ पर श्रीकृष्ण और बालमंडली का ही साम्राज्य था। सभी नगरवासी, राजसेवक और पथिक मूर्तिवत अपने स्थान पर खड़े थे और उस दिव्य सौन्दर्य को अपनी आँखों में हमेशा के लिए बसा रहे थे। प्रेम, हर्ष और आश्चर्य से सभी रोमांचित थे। अचानक श्रीकृष्ण के पैर सुदामा माली के घर की ओर मुड़ गए। ऐसा लग रहा था जैसे मथुरा नगर का हर पथ, हर गली से उनका पुराना परिचय हो। वे निस्संकोच सुदामा के घर पहुंच गए। सुदामा माली को जैसे पुरानी धरोहर प्राप्त हो गई हो। उसने श्रीकृष्ण के चरणों में अपना दंडवत, प्रणाम अर्पित किया। पूरी मंडली को उत्तम आसन देकर श्रीकृष्ण का चन्दन का लेप, पुष्प एवं सुपारी से पूजन किया। भावविभोर माली ने विनीत भाव से प्रार्थना की –
“प्रिय भगवन्! मैंने इसके पूर्व आपको कभी नहीं देखा। फिर भी आपका यह दिव्य मुखमंडल मुझे तनिक भी अपरिचित नहीं लग रहा है। निश्चय ही मेरा-आपका संबन्ध जन्म-जन्मान्तर का है। मेरे गृह में आपके पदार्पण से मेरे पितर और मेरे सभी गुरुजन अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं और तर गए हैं। हे प्रभो! इस भौतिक सृष्टि के सभी कारणों के आप परम कारण हैं। किन्तु पृथ्वीवासियों के कल्याण के लिए तथा अपने भक्तों की रक्षा एवं असुरों के संहार के लिए आप स्वांश सहित यहां अवतरित हुए हैं। समस्त जीवात्मा के मित्र के रूप में आप सभी पर समभाव रखते हैं। आप परमात्मा हैं और शत्रु तथा मित्र में भेद नहीं करते हैं। फिर आप भक्तों को उनकी भक्ति का विशेष फल देने को तत्पर रहते हैं। प्रिय भगवन्! मैं आपका नित्य दास हूँ, अतः प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें।”
अद्भुत !