सद्गंधा-विशद्गंधा : ज्यों नावक के तीर
मेरी मुलाकात श्री राजेश द्विवेदी जी से फेस बुक पर हुई। उनकी टिप्पणियों से ही लगा कि वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्हीं दिनों यह पता चला कि उनकी पुस्तक सद्गंधा-विशद्गंधा प्रकाशित हुई है। मैंने उनसे पुस्तक भेजने का अनुरोध किया, तो उन्होंने तुरंत भिजवा दी।
उनकी यह पुस्तक उनके विचारों का संग्रह है, जिसे उन्होंने 61 शीर्षकों के अंतर्गत पेश किया है। उसे पढ़ कर मैं जान सकी हूँ कि उनका चिंतन व मनन अत्यंत गहन है और उतनी ही बेबाकी से वे उसे पेश करते हैं। उनकी शुभाशंसा में श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’ जी (पूर्व निदेशक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान) कहते हैं—
सद्गंधा के भाव नव ज्यों नावक के तीर
देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर
और यह बात मुझे अक्षरश: सही लगी
आदरणीय रामचन्द्र शुक्ल, पूर्व जज अपने अभिमत में लिखते हैं—“आन्तरिक घ्राणरंध्र की शाब्दिक अनुभूति है सद्गंधा-विशद्गंधा”
भाषा जरूर क्लिष्ट लगी। कई बार शब्द कोश की सहायता लेनी पढ़ी, परन्तु यह भी संभवत: उनके उच्च व्यक्तित्व का एक अंश है। मैं उनको अनेकों शुभकामनायें देती हूँ और चाहती हूँ कि उनके जैसे मननशील व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि हो। उनके कुछ विचारों को उद्धृत करके मैं विराम लेती हूँ
निरन्तरम्
यदि आप रुक जाते हैं तो आप होने का भान नहीं कर सकते क्योंकि होना वस्तुत: होते रहना होता है। अनुभव निरपेक्षता की चीज़ नहीं—सापेक्ष बिन्दुओं का समंजन है, अनुगमन है, प्रवाहन है।
परहेज
जिस तरह फेयरनेस क्रीम केवल युवाओं के लिये कारगर होती है, उसी तरह आज की संस्कृति केवल युवाओं की परिवारगत सामाजिक वकालत करती नज़र आती है। औषधि के साथ-साथ परहेज या पथ्य एक अनिवार्यता है आयुर्विज्ञान की। सामाजिक संदर्भ में औषधि संस्कारशीलता के समान है तथा परहेज सदाशयी वर्जनायें हैं।
— डॉ. गीता मल्होत्रा
इस पुस्तक को मैंने आद्योपांत पढ़ा है. इसमें बहुत गहरे और उपयोगी विचार हैं.