कविता और विज्ञान
नीला सुंदर गगन यह विस्तृत
कल्पना हुई पूर्ण कवि की,
अरे , यहाँ कोई रंग कहाँ है?
ये तो माया है’अपवर्तन’ की।
अहा जरा इनमें तो झांको
नायिका की भावपूर्ण आँखें
कहाँ, अरे ये तो मानव की
साधारण सी’ दृशयेंद्रियाँ ‘हैं।
इस पृथ्वी से दूर स्वर्ग में
देवताओं का वास रहा है
आज के मानव को देखा?
अन्तरिक्ष में जो घूम रहा है।
चलो भागें तितली के संग
न्यारी शोभा इन फूलों की
केवल ‘जायांग पुमंग पुंज
द्लपुन्जों ‘का ये समूह तो है।
प्रेम नफरत दोस्ती दुःख सुख
जीवन उतार है चढाव भी है
ना जी कुछ तो इनमे हारमोंस
कुछ दिमाग में केमिकल लोचा है।
रचनाकार अपना एक मत देता
वैज्ञानिक मस्तिष्क दूसरा कहता
तो किस राह पर आगे बढना
मति भ्रम तो ये मिट न पाता।
कोई परम शक्ति है सृष्टिकर्ता
विनाशी भी इसका ईश ही है
कैसे रच सकता सृष्टि वो?
खुद को सिद्ध न कर पाया है।
पर कहो तो तर्क कहाँ से पाया
वैज्ञानिक बुद्धि कैसे पायी
बस यहीं तो आकर हुआ
विमूढ हूँ मैं कविवर भाई।
– डॉ छवि निगम
अच्छी कविता।