कह मुकरियाँ
1 ) गली गली में शोर मचाते
पांच साल में जब ये आते
हर इंसा अपना सा लगता
का सखि साधु ? ना सखि नेता !!
2 ) रात दिन करता है मेहनत
उसकी कभी चमके ना किस्मत
लक्ष्मी भी रहती है दूर
का री गर्दभ? ना री मज़दूर !!
3 ) दुनिया जिसकी हुई गुलाम
तुरत बना दे बिगड़े काम
समझ न उसको ऐसा वैसा
का सखी नेता ? न सखी पैसा !!
4 ) इसके जीवन अँधियारा
दूजे का फिर तके आसरा
आठों पहर ना आवे चैन
का सखि बिजली ? ना सखि नैन !!
5 — वो आएँ तो खुशियां छाएँ
कभी कभी गम भी दे जाएँ
आने की ना है कोई तिथि
का सखि बादल ? ना सखि अतिथि !!
6 — जाडे में लगती है भली
उसके बिन सूनी रे गली
चाल नहीं मौसम अनुरूप
का सखि साइकिल ? ना सखि धूप ।।
— साधना अग्निहोत्री
बढ़िया कह मुकरियां ! पहले इस विधा का खूब उपयोग होता था. अब यह लुप्त सी हो गयी है. यहाँ पढ़कर सुखद अनुभूति हुई.
बहुत खूब .