कविता

कह मुकरियाँ

1 ) गली गली में शोर मचाते
पांच साल में जब ये आते
हर इंसा अपना सा लगता

का सखि साधु ? ना सखि नेता !!

2 ) रात दिन करता है मेहनत
उसकी कभी चमके ना किस्मत
लक्ष्मी भी रहती है दूर

का री गर्दभ? ना री मज़दूर !!

3 ) दुनिया जिसकी हुई गुलाम
तुरत बना दे बिगड़े काम
समझ न उसको ऐसा वैसा

का सखी नेता ? न सखी पैसा !!

4 ) इसके जीवन अँधियारा
दूजे का फिर तके आसरा
आठों पहर ना आवे चैन

का सखि बिजली ? ना सखि नैन !!

5 — वो आएँ तो खुशियां छाएँ
कभी कभी गम भी दे जाएँ
आने की ना है कोई तिथि

का सखि बादल ? ना सखि अतिथि !!
6 — जाडे में लगती है भली
उसके बिन सूनी रे गली
चाल नहीं मौसम अनुरूप

का सखि साइकिल ? ना सखि धूप ।।

साधना अग्निहोत्री

साधना अग्निहोत्री

Birth -- 13 / 10 /1964 Siksha -- M A / Economics

2 thoughts on “कह मुकरियाँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कह मुकरियां ! पहले इस विधा का खूब उपयोग होता था. अब यह लुप्त सी हो गयी है. यहाँ पढ़कर सुखद अनुभूति हुई.

  • बहुत खूब .

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