बूढा पेड़
सालों से स्तब्ध खड़ा
वो मेरे पुराने घर के
पिछवाड़े बूढा पेड़
सदियो से निर्जन पड़े
उस घर में अकेला
थका सा वो बूढ़ा पेड़
अपनी बूढ़ी लम्बी साखो में
निःस्वार्थ मोह अपार
समेटे अपने हृदय में
उसकी वीरक्त आखों से
अतृप्त सी उसकी आत्मा
वही किलकारियां
चहल पहल को बेकल
रत्नवती के सीने पर
विशालकाय वो बूढा पेड़
अपने अभ्यागतों की
प्रतीक्षा में पलक पावडे बिछा
मन अभिलाषा को
स्वयं अलंकृत करता
झंकृत करता पत्तों को
कोई तो सुने उसकी वेदना
आज भी आस लगाये बैठा हैं
उन अपनों की
जो छोङ गये है
उसे लगाकर
कुछ पाल पोसकर
आज जब मजबूत हुआ है
अपने तजुर्बो से
तो जरुरत नही पङ रही
उसके अपनो को
उस तजुर्बे की
क्यूंकि
समय मांग रहा है
वो बदलाव
जो वह पीछे छोङ आया है
वो मेरे पुराने घर के पिछवाडे
बूढ़ा पेड़
मधुर परिहार
बहुत अच्छी कविता एवं भाव !
बहुत सुन्दर विचार .