यशोदानंदन-49
श्रीकृष्ण अपने सभी बन्धु-बान्धवों और अनुचरों के साथ मथुरा आए थे। अपने साथ प्रचूर मात्रा में खाद्य-सामग्री भी लाना नहीं भूले थे। शिविर में पहुंचते ही अनुचर सेवा में तत्पर हो गए। उन्होंने दोनों भ्राताओं के पांव पखारे और उत्तम आसन दिए। दाउ के साथ अगले दिन के कार्यक्रम पर विस्तार से चर्चा के पश्चात् दोनों ने सुस्वादु भोजन ग्रहण किया और शान्तिपूर्वक विश्राम करने लगे।
उधर श्रीकृष्ण सुख से निद्रा देवी का आलिंगन कर रहे थे, इधर कंस की आँखों से निद्रा पलायन कर चुकी थी। इतनी सहजता से अद्भुत धनुष को तोड़ने वाला और पूरी सैनिक टुकड़ी का पलक झपकते संहार करने वाला कोई साधारण बालक नहीं हो सकता था। उसे श्री भगवान की शक्ति का किंचित आभास हुआ। उसे अनु्भव होने लगा कि देवकी के आंठवें पुत्र का आगमन हो चुका है। वह समस्त रात्रि विश्राम न कर सका और अपनी आसन्न मृत्यु के विषय में सोचता रहा। उसे ढेर सारे अशुभ लक्षण दिखाई पड़ने लगे। उसे स्पष्ट समझ में आ गया कि मथुरा की सीमा के समीप ठहरे हुए श्रीकृष्ण और बलराम और कोई नहीं, उसकी मृत्यु के दूत थे। फिर भी हृदय के एक कोने में कहीं न कहीं वह अपनी योजना के प्रति आश्वस्त था। रह-रहकर उसका विश्वास हिल जाता था, लेकिन प्रयत्नपूर्वक वह आशा की एक डोर थाम लेता। क्या वे दोनों बालक चाणूर और मुष्टिक जैसे प्रलयंकारी मल्लों से पार पा पायेंगे? चाणूर और मुष्टिक की सफलताओं को याद करते ही उसके होठों पर एक हल्की मुस्कान तिर आती थी, लेकिन अगले ही पल राजकीय सैनिकों की दुर्गति याद आते ही हृदय भय से कांप जाता था। जब भी वह सोने का प्रयास करता, बुरे-बुरे स्वप्न आने लगते और झटके से नींद खुल जाती। निद्रा और जागृतावस्था में संघर्ष के बीच उसने पूरी रात बिताई। उसके मस्तिष्क में एक ही योजना बार-बार चक्कर लगा रही थी – वह कि अपने विश्वस्त मल्लों द्वारा श्रीकृष्ण-बलराम का वध। यह योजना उसके हृदय को कुछ क्षणों के लिए ठंडक भी प्रदान कर रही थी और चिन्तनशील आँखों को नींद भी।
प्रभात का सूर्य पूर्व के क्षितिज पर आ चुका था। उसे भी आज के दिन की सदियों से प्रतीक्षा थी। श्रीकृष्ण के जीवन की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक के प्रत्यक्षदर्शी होने का सौभाग्य उसे प्राप्त होनेवाला था। रासलीला का प्रत्यक्षदर्शी होने का सौभाग्य तो चन्द्रमा को प्राप्त हुआ था। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के विषय में सूर्य जितना सोच रहे थे, उनकी उलझन उतनी ही बढ़ती जा रही थी। कही तो गोविन्द प्रेम-गीत गाने वाले और अपनी मुरली की धुन पर गोपियों को रिझाने वाले एक सहृदय प्रेमी के रूप में दिखाई दे रहे थे, तो कही रक्तवर्ण आँखों से क्रोध की अभिव्यक्ति करते हुए धनुष के एक टुकड़े से ही दुर्दान्त शत्रुओं से युद्ध करते एक अद्वितीय शूरवीर के रूप में दीख रहे थे। सूर्यदेव ने उनके अनेक रूप गत दस वर्षों में देखे थे। क्या कोई कल्पना कर सकता है, कि ग्वालबालों के साथ माखन-चोरी करने वाला, कंकड़ियों की मार से गोपियों की मटकी फोड़ने वाला अकेले कालिया-मर्दन भी कर सकता है और तर्जनी पर एक सप्ताह तक गोवर्धन भी धारण कर सकता है? लेकिन एक समानता सदैव रही। अल्प आयु में ही सारे कार्य संपन्न करने वाले नन्द के इस लाल ने कभी भी अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान का साथ नहीं छोड़ा। कल भी धोबी को पाठ पढ़ाने और कंस के आततायी सैनिकों के वध के समय श्यामसुन्दर की वह सम्मोहिनी मुस्कान सदा की भांति उनके होठों पर वैसे ही विराजमान थी। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व में इतनी विविधतायें कैसे संभव है? लेकिन श्रीकृष्ण के साथ असंभव शब्द कभी अस्तित्व में रहा ही नहीं। प्रकृति के रूप, रंग, विविधता को समेटना किसी एक व्यक्ति के वश की बात है क्या? फिर प्रकृति के नियन्ता के बारे में ऐसी सोच अज्ञानता का ही परिचायक है। सूर्यदेव की भी प्रज्ञा थकने लगी।
सवेरे कंस टहलते हुए मल्लयुद्ध की रंगभूमि में स्वयं गया। सम्मानित व्यक्तियों के बैठने के मंच को, पुष्प-गुच्छों, पताकाओं और रेशमी वस्त्रों से सजाया गया था। चारों ओर बन्दनवार और मोतियों की लड़ियां झूल रही थीं। विभिन्न राजाओं के सिंहासन आरक्षित थे तथा अन्य लोगों के आसन भी निश्चित थे। निर्धारित समय पर सभी अतिथि गण रंगभूमि की दीर्घाओं में विराजमान हो गए। राजा कंस भी अपने मंत्रियों के साथ महामंडलेश्वर के बीच सर्वश्रेष्ठ सिंहासन पर गर्व के साथ आसीन हुआ। उसके आते ही तूरही, भेरी, नगाड़े आदि वाद्य बजने लगे। कंस ने अक्रूर की ओर रहस्यात्मक दृष्टि फेंकी। शीघ्र ही नन्द बाबा एवं अन्य आमंत्रित गोपों को दीर्घा में बुलाकर उचित आसन प्रदान किया गया। नन्द बाबा और अन्य गोपों ने गोकुल से लाये उत्तम उपहार कंस को भेंट किए। उसने कृत्रिम मुस्कान के साथ उपहार स्वीकार किए। अचानक वाद्य-यंत्रों की ध्वनि तेज हो गई। नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे और तुरही से भी युद्ध की घोषणा वाली धुन पंचम स्वर में निकलने लगी। विभिन्न वाद्यों की धुन पर ताल ठोंकते हुए गर्वीले मल्ल अपने-अपने गुरुओं के साथ अखाड़े में आ उतरे। मल्लों के शरीर-सौष्ठव और भंगिमा अत्यन्त भयकारी थी। उन्होंने खा जाने वाले नेत्रों से दर्शकों का निरीक्षण किया। झुककर कंस का अभिवादन करने के पश्चात् संकेत मिलने पर सबने अपने-अपने आसन ग्रहण किए। उपस्थित मल्लों में प्रमुख रूप से चाणूर, मुष्टिक, शूल, कूट तथा तोशल की भाव-भंगिमायें यमराज के दूत के समान थीं। उन्हें देखकर कंस आश्वस्त हुआ। उसके मुखमंडल पर मुस्कान की एक रेखा खिंच गई।
अत्यंत रोचक।