लघु कथा : खिलवाड़
मै एक ऐसे शहर मे रहती हूं जहां कैफेटारिया भी नही और ना ही गाँव की तरह खुशनुमा प्राकृतिक वातावरण जहां इत्मिनान से शाम बिताई जा सके। पड़ोसियों से देश दुनियाँ की चर्चा या टी वी पर बोरियत भरे सिरियलों के साथ डुब-उब करना ही यहां शगल का एकमात्र माध्यम है ।
पिछ्ले दिनो एक साथ दो अच्छी बात हूई । माँ का आना हुआ और शहर में नया मौल का खुलना। मानो वर्षों की मन्न्त पुरी हो गई। फिर क्या था आनन फानन में मैने ए टी एम से पैसे निकाले, मां को साथ लेकर एक शाम पहुंच गई शापिंग करने। ऐसे वक्त में हम पैसे की चिन्ता नहीं करते। सो मैने भी गैर जरूरी चिजों की जम कर खरीदारी की। पेमेंट करने के वक्त हरे हरे ताजे 500 के नोट जब उन्होनें मशीन में डाला, 500 का एक नोट नकली निकल आया । उफ़्फ़ ! अचानक ये कैसी मुसीबत आन पड़ी । खैर मैने कुछ सामान कम किए, हिसाब बराबर किया और बाहर निकल आयी ।
हम सभी भारतीय खास कर औरतों की अच्छी आदत ये है कि जब कभी मुसिबतें हमे घेरती है हम किसी भी हाल मे सरकार को, पुलिस को या व्यवस्था को हरगिज नहीं कोसते। सारा दोष हमारे किस्मत का होता, ऐसा मानकर हम खुद को तसल्ली देते हैं , सो मै भी — “ एक शाम भी ढंग से नहीं गुजर सकता, अजीब किस्मत है मेरी “आद्तन मै अपनी किस्मत को कोसती हुई घर की ओर चल पड़ी। दूसरी बात जो मुझे बेहद दुख दे रही थी वो 500 रु का नुकसान था। और मुझे उससे निजात पाने का कोई हल नजर नही आ रहा था । एक अच्छी शाम की तलाश का इतना बुरा अंजाम, सोच सोच कर आंसू ट्प ट्प चू पड़े।
तभी मेरी नजर फुटपाथ पर बैठे सब्जी बेचने वालों पर पड़ी । शायद भगवान ने मेरी भी प्रार्थना सुन लिया जैसे फिल्मो मे ऐन वक्त पर हीरो की सुनते । मन को थोड़ी शांति मिली। झट से मैने आंसू पोछा और एक काला सा शक्ल से बुद्धु किस्म का दिखने मे सब्जी बेचने वाले से बिना मोल भाव किये सब्जी खरीदा, बचे पैसे वापस लिए और तेजी से ऐसे भाग ख़ड़ी हुई जैसे कि मैने चोरी की है । सांसें तेज चल रही थी सो मैने रिक्शा लिया। अभी रिक्शा थोड़ा आगे ही बढा था कि “ओ,मैड्म जी ओ मैड्म जी “ की आवाज आई । पलट कर देखा तो वो ही काला कलूठा सब्जी वाला हमारी ओर भागता दिखा, आज सचमुच किस्मत खराब है एक ठंडी आह भर मैने रिक्शे वाले से तेज चलाने का आग्रह किया पर सब व्यर्थ। तभी उसने एक थैला मेरी तरफ बढाया —आप इसे भूल आयी थी, इतना कहकर वो दौड़ता हुआ वापस हो गया।
मै हतप्रभ । काटो तो खुन नही। एक नोट के लिए मैने कितनी अक्लमदी से उसकी एक गरीब की भावनाओं से किया और वो , उसे तो नफा नुकसान का इल्म तक नही। शर्मिंदगी से मेरी झुकी नजरें उसके लौट्ते कदमों को अभी देख ही रही थी कि तभी पुरानी माड्ल की खटारा कार मेरे बगल से गुजरी और उसके धुएं से मेरा चेहरा काला हो गया ।
डा. भावना सिन्हा
बहुत सुंदर और मार्मिक लघुकथा।
v nice story ….