ग़ज़ल
समेट लूँ जिंदगी को कोई पल हो ऐसा
बात आज की नहीं कोई कल हो ऐसा
वो दवा हो ऐसी जो वक्त को रोक पाये
वक्त ,वक्त न रहे वक्त में वक्त हो ऐसा
न खुदा न खुद हो न जन्नत की हो बात
मिले रूह हमको वो असर हो ऐसा
दिल मेरा गीत उसके, साज़ दोनों ही हों
चुभे जो काटे नहीं ,वो ख़ंजर हो ऐसा
ख्वाब हों हकीकत के आँखों में समन्दर
सम्हाले जो हमको वो किनारा हो ऐसा
जमीं ज़ाम छलकाए बहक जाये आसमाँ
प्रतीक ज़िन्दगी बने, चाहे गरल हो ऐसा
— डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय ‘प्रतीक’