कविता

कविता : कब तक

चाँदनी को अपनी मुट्ठी में भींच कर
“मंजू” कब तक चलती रहूँ मैं
कितनी सर्द हो गई है हथेली
कब तक निलाम्बर खोजती रहूँ मैं
इन टेड़े मेडे सपनों को
किस दामन में बटोरूं मैं
सूखे हुये आंसुओं की डोर भी नहीं
कि चुन चुन उन्हें पिरोऊं मैं

— मंजुला रिशी
लंदन

2 thoughts on “कविता : कब तक

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब .

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! वाह!!

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