प्रार्थना मुक्ति की
वरदानों का अभिशाप भोगते
आज तुम्हें भागते दौड़ते
गर एक नाम याद आये तो
कर देना एक प्रार्थना
हो जाये शायद उसकी मुक्ति….
पिता के मोहपाश ने
बांध दिया फांस में
अमरता की जंजीर में
आत्मा को शरीर में
बना दिया बंदी…..
अब न वह जलता न डूबता है
न स्मृति है न भूलता है
उसे कोई,न वह किसी को जानता है
पथिक है उस यात्रा का
जिसमें पूर्णता नहीं कहीं…..
बाँटने से बढ़ता है सुख
बाँटने से घट जाता दुःख
सुना अश्वत्थामा ने शायद
तो बाँट दी है अब उसने
हम सबमें पीड़ा अपनी…..
आज भी वरदान
थोड़े थोड़े अभिशाप
पुण्यों में थोड़ा थोडा सा पाप
मोह में अंधे बाप
दे रहे अपनी संतानों को
वरदानों का अभिशाप….
अगर दिया वरदान
तो दे देते यह भी ज्ञान
कैसे मिलेगी इससे मुक्ति
जैसे श्राप देने वाले
बता देते हैं अवधि…..
मिट जाएं अश्वत्थामा के साथ
वरदानों में छुपे अभिशाप
एक प्रार्थना उसके लिए
एक प्रार्थना हमारे लिए
फिर से सुन्दर हो जाये संसार…
बहुत खूब !
धन्वाद, मुझे लगता था ऐसी कविताएँ लोग समझेंगें नहीं
मुक्त बोध में बहुत दिनों बाद एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली है। बधाई हो।
शुक्रिया