श्रमिक गीत
जैसे रूई धुनें जुलाहे
श्रमिक अंधेरों को धुनते हैं,
किरणों की चादर बुनते हैं।
एक उम्र के जितनी लंबी
दुर्घटना बन कर जीते हैं
सब कुछ पाकर भी रीते हैं,
पंछी बन कर तिनका तिनका
निज अस्तित्व-बोध चुनते हैं।
अपने सपनों की राहों में
सदियों से ये खड़े हुए हैं
बुत जैसे हों, गड़े हुए हैं,
मानों कोई मील का पत्थर
इतिहासों से यह सुनते हैं।
गहन तिमिर में सजा काटते
किसी उजाले के अपराधी
भुगत रहे हैं निज बर्बादी,
स्वयं एक दिन विस्फोटित हो
कीट-पतंगों सा भुनते हैं।
जैसे रूई धुनें जुलाहे ….
— कृष्ण ‘सुकुमार’
अच्छी कविता !