कविता

कविता : इस कदर

अब तो हिचकियां भी नहीं आती
तुम भूल गए हो इस कदर
साथ मरने जीने की कसमें
प्यार के वादे वफ़ा की रश्में
तुम तो तोड़ गए हो हँसकर
सजाये रहते हो चेहरे पर मुस्कान
बने रहते हो अनजान ।
साँसें रुक जाती हैं मेरी
तुम रूठ गए हो इस कदर

धर्म पाण्डेय

One thought on “कविता : इस कदर

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह !

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