कविता

अंतिम गिरह

seema picमेरा सौन्दर्य
तुमसे अछूता रहा
आज तक न जान पाई
सूने माथे में
मैं मासूम दिखती हूँ
या
सिंदूरी मांग
मुझमे रक्तिम आभा भरता है—-

सुहाग चिन्ह जरूरी थे
सुहागन दिखने के लिए
मैं कहती हूँ
दिखने से ज्यादा होना जरूरी है—–

एक एक कर उतारती गई
तुम्हारे होने के सबूत
सारे निशान
बिंदी से लेकर बिछीया तक
एक एक गिरह खुलता गया
सातों वचन के
अंतिम गिरह बाकी है
बस इस बार
पदचाप भी न सुन सकोगे मेरा—–

— सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

One thought on “अंतिम गिरह

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता !

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