अंतिम गिरह
मेरा सौन्दर्य
तुमसे अछूता रहा
आज तक न जान पाई
सूने माथे में
मैं मासूम दिखती हूँ
या
सिंदूरी मांग
मुझमे रक्तिम आभा भरता है—-
सुहाग चिन्ह जरूरी थे
सुहागन दिखने के लिए
मैं कहती हूँ
दिखने से ज्यादा होना जरूरी है—–
एक एक कर उतारती गई
तुम्हारे होने के सबूत
सारे निशान
बिंदी से लेकर बिछीया तक
एक एक गिरह खुलता गया
सातों वचन के
अंतिम गिरह बाकी है
बस इस बार
पदचाप भी न सुन सकोगे मेरा—–
— सीमा संगसार
बहुत सुन्दर कविता !