कामकाज़ी महिला
कामकाज़ी महिला
के घर आता है
हर दिन भूचाल
पाँच बज गए
हर ऱोज सुबह
लहसुन कूटने की
आवाज़ से
जाग जाते थे पड़ोसी
और शुरु हो जाता
घड़ी की टिक टिक
के साथ मेरे हाथों
का थिरकना
चाय बनती
दूध उबलता
आँख ठीक से
खुलती की उससे पहले सब्जी
कटकर हो जाती तैयार
ऐसी भागमभाग
कि एक शब्द
बतिया लो तो लगता
दो मिनट बर्बाद
बन जाती सब्जी रोटी
होता खाने का डब्बा
तैयार
पर न मिलता
समय पीने का चाय
एक घूंट में पानी हुई
चाय गटक लेती
रख लेती
नाश्ता लपेटकर
सारे काम होते मशीनी
मिनटों में
बिखर सी जाती है
जिन्दगी सुबह सुबह
यूँ ही होती है
हलकान कामकाज़ी महिलाएं
— सरिता दास
बढ़िया ! जमीन से जुडी कविता !!