लघुकथा

पोक_पोक

“ओ मिस्टर यह पोक क्यों ? क्या आप मुझे जानते हैं ?”

“जी हाँ ! आप सिन्हा सर की बेटी मानसी हैं ना मैं आपका क्लासमेट समीर. वोह चेक शर्ट वाला जिसे पोक कहती थी आप ”

“तुम !!! तुमने मुझे कहाँ से ढूढ़ लिया यहाँ फेस बुक पर ”

“बहुत पत्थर मारे हैं मैंने मिस मानसी आपको गुलाबो की झाड़ी के पीछे से ”

“यह तुम थे ना जो मुझे पत्थर मारते थे कॉलेज के गार्डन में, और हर बार कोई और पकड़ा जाता था. कितनी भी नानुकुर करे मेरे पापा जो कॉलेज के लेक्चरार थे उसको संस्कृति और सभ्यता पर लम्बा सा लेक्चर सुना देते थे ”

“हाँ मैं ही होता था बहुत मन करता था आपसे बात करूँ पर एक तो प्रोफेसर की बेटी उस पर बला की खूबसूरत , डर लगता था कि कही घर शिकायत गयी या कॉलेज निष्कासित कर दिया गया तो मेरा तो साल ख़राब हो जाएगा ”

“पर पत्थर मारने का क्या मतलब ?”

“हाँ था तो गलत ही. तब अक्ल ही कितनी थी. ”

“हाँ बेवक़ूफ़ से थे तुम इसिलिए मुझे याद रह गये. आओ स्वागत तुम्हारा मेरी फेसबुक लिस्ट में “कहकर मानसी ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी

“सच ! मेरा पत्थर मारना सफल रहा फिर तो” सोचकर ठहाका लगा कर हँस पढ़ा समीर और उधर मानसी भी मुस्कुरा दी .. आज फेस बुक पर फिर से समीर ने पत्थररूपी पोक मार दिया था और इस बार सही जगह लग गया था.

निविया 

नीलिमा शर्मा (निविया)

नाम _नीलिमा शर्मा ( निविया ) जन्म - २ ६ सितम्बर शिक्षा _परास्नातक अर्थशास्त्र बी एड - देहरादून /दिल्ली निवास ,सी -2 जनकपुरी - , नयी दिल्ली 110058 प्रकाशित साँझा काव्य संग्रह - एक साँस मेरी , कस्तूरी , पग्दंदियाँ , शब्दों की चहल कदमी गुलमोहर , शुभमस्तु , धरती अपनी अपनी , आसमा अपना अपना , सपने अपने अपने , तुहिन , माँ की पुकार, कई वेब / प्रिंट पत्र पत्रिकाओ में कविताये / कहानिया प्रकाशित, 'मुट्ठी भर अक्षर' का सह संपादन

One thought on “पोक_पोक

  • विजय कुमार सिंघल

    मजेदार कहानी !

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