पिता
पिता
नाम भरोसे का
जिसमे महफूज़
रहता हर बचपन
जब जब डरी मैं
देखकर दुनिया का
घिनौना रूप
पिता ने दिया भरोसा
मैं हूँ कहकर
रखा सर पर हाथ
भागा भूत डर का
लगकर
उनके सीने से
मिला हर बार
एक संबल
सिखाया मुझे सही गलत
समझाया
निभाना रिश्तों को
आपके साये तले थी
कितनी बेफिक्र मैं
और प्यार आपका
मजबूत सुरक्षा कवच
वो लाड़ करना
जली सब्जी को
चाव से खाना
मेरे चेहरे पर लाने को
सिर्फ एक मुस्कान
दी आपने हर खुशी
जिसे बांटा मैंने सब के साथ
पढ़ाया संस्कारों का पाठ
जो है हर दम साथ
पिता का साया
यूँ ही रहे सदा
— सरिता दास
कविता बहुत अच्छी लगी.
बहुत खूब !