कविता

मेरी मर्जी

स्त्री हूँ

हाँ स्त्री ही हूँ

कोई अजूबा नहीं हूँ, समझे न !

क्या हुआ, मेरी मर्जी

जब चाहूँ गिराऊं बिजलियाँ

या फिर हो जाऊं मौन

मेरी जिंदगी

मेरी अपनी, स्वयं की

जैसे मेरा खुद का तराशा हुआ

पांच भुजिय प्रिज्म

कौन सा रंग, कौन सा प्रकाश

किस प्रवर्तन और किस अपवर्तन के साथ

किस किस वेव लेंग्थ पर

कहाँ कहाँ तक छितरे

सब कुछ मेरी मर्जी !!

मेरा चेहरा, मेरे लहराते बाल

लगाऊं एंटी एजिंग क्रीम या ब्लीच कर दूं बाल

या लगाऊं वही सफ़ेद पाउडर

या ओढ़ लूं बुरका

फिर, फिर क्या, मेरी मर्जी !

मेरा जिस्म खुद का

कितना ढकूँ, कितना उघाडू

या कितना लोक लाज से छिप जाऊं

या ढों लूँ कुछ सामाजिक मान्यताएं

मेरी मर्जी

तुम जानो, तुम्हारी नजरें

तुम पहनों घोड़े के आँखों वाला चश्मा

मैं तो बस इतराऊं, या वारी जाऊं

मेरी मर्जी !

है मेरे पास भी तुम्हारे जैसे ऑप्शन,

ये, वो, या वो दूर वाला या सारे

तुम्हे क्या !

हो ऐसा ही मेरा नजरिया!

हो मेरी चॉइस! माय चॉइस !!

पर, यहीं आकर हो जाती हूँ अलग

है एक जोड़ी अनुभूतियाँ

फिर उससे जुडी जिम्मेदारियां

बखूबी समझती हूँ

और यही वजह, सहर्ष गले लगाया

दिल दिमाग से अपनाया

आफ्टर आल माय चॉइस टाइप्स फीलिंग

है न मेरे पास भी !!

मुकेश कुमार सिन्हा 

One thought on “मेरी मर्जी

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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