दान किया धन परमात्मा के बैंक में जमा होता है और जन्म-जन्मान्तर में ब्याज व सूद सहित वापिस मिलता है: आचार्य उमेश चन्द
वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून के उत्सव का दूसरा दिन
आज बृहस्पतिवार 7 मई, 2016 को वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के दूसरे दिन के समारोह का आरम्भ प्रातः 6.30 बजे सामवेद पारायण यज्ञ से हुआ। यज्ञ में मन्त्रोच्चार गुरूकुल पौंधा, देहरादून के ब्रह्मचारियों ने किया। यज्ञ के ब्रह्मा योगधान आश्रम, हरिद्वार के अध्यक्ष स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती थे। यह सामवेद पारायण यज्ञ अनेक कुण्डों में शुद्ध गोघृत व सामग्री से किया गया जिसकी सुगन्धी से आश्रम परिसर का सारा वातावरण पवित्र व सुगन्धित हो गया। यज्ञ के पश्चात मथुरा से पधारे प्रसिद्ध व मधुवर्षी भजनोपदेशक श्री उदयवीर सिंह आर्य के मनोहर व हृदय को श्रद्धा व प्रसन्नता से भावविभोर करने वाले भजन हुए। एक भजन था–‘‘जिन्दगी भर किया न प्रभु का भजन, ऐसा जीवन बिताने से क्या फायदा? चित्त की वृत्तियां यूं ही मैली रहीं, ऐसी गंगा नहाने से क्या फायदा।। भजन स्वाध्याय सत्संग किया ही नहीं भूलकर आत्म चिन्तन कभी न किया। योग के रंग में अपने को रंग न सके, ऐसा बाबा कहाने से क्या फायदा।। वृद्ध माता पिता ये प्यासे मरे, एक कटोरा भी पानी पिला न सके। फिर कनागद में पूरी व पकवान को, ब्राह्मणों को खिलाने से क्या फायदा? भाई भाई यों परस्पर लड़ते रहे, प्रेम सद्भाव मन में बना न सकें। जाके मन्दिर में श्रीराम और भरत के, प्यार के गीत गाने से क्या फायदा? सुन के दिल पे अगर जो कर न सके, भाव सुन्दर हृदय में बना न सके। ब्रह्मानन्द कुरीति मिटा न सके, ऐसे गाने बजाने से क्या फायदा? जिन्दीगी भर किया न प्रभु का भजन, ऐसा जीवन बिताने से क्या फायदा?’’
श्री उदयवीर आर्य के भजनों के पश्चात आचार्य उमेश चन्द का प्रवचन हुआ। उन्होंने कहा कि यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम आर्यसमाज के सत्संग में बैठे हैं। आर्यसमाज का सत्संग ही संसार में बुद्धि पर पड़े तालों को खोलता है तथा बुद्धि की जड़ता को समाप्त करता है। एक सत्य कथा सुनाते हुए विद्वान वक्ता ने कहा कि एक गांव में 8-9 वर्ष का एक बालक था जो पढ़ने में बहुत कमजोर था। स्कूल का होमवर्क करके नहीं ले जाता था, इसलिये सभी गुरूजन उसे पीटते थे। घर आता था तो माता-पिता भी पीटते थे, कहते थे कि तू पढ़ता नहीं, तेरी शिकायतें बहुत आती हैं। उन दिनों उनके गांव का नाला वर्षा जल से भर कर चल रहा था। इस बालक ने विचार किया कि स्कूल में भी पीटता हूं, माता पिता भी पीटते हैं, इसलिये जीवित रहकर कोई लाभ नहीं, मर जाना ही ठीक होगा। यह विचार और निर्णय कर वह जल से भरे नाले में कूद पड़े। उनका जीवन अभी शेष था अतः आगे जाने पर कुछ किसानों ने उसे देख लिया और पानी से बाहर निकाला। गांव व आसपास की जनसंख्या कम थी। सब लोग एक दूसरे को जानते थे। पहले उन्होंने बालक से जान देने की वजह पूछी तो उसने सारी स्थिति उन्हें बताई। वह लोग उसे लेकर उसके घर पहुंचे। माता-पिता को बालक को सौंपा। माता-पिता ने कारण पूछा तो बालक ने सच्चाई उन्हें बताई। माता-पिता समझदार थे, उसे कहा कि अब वह उसे न तो पीटेंगे और न पढ़ाई के लिए डाटेंगे। उनके गांव के बाहर एक स्थान था जहां साधु महात्मा लोग आकर रहा करते थे। उन्हीं दिनों वहां आर्यसमाज के एक सन्यासी आ गये। घरवालों को पता चला तो उन्होंने उनके लिए भोजन भिजवाना आरम्भ किया। इस कार्य के लिए उन्होंने अपने पुत्र को कहा। वह स्वामीजी के लिए झोले में भोजन लेकर चला। स्वामीजी ने बालक को देखा तो वह उन्हें स्वस्थ व सुन्दर दिखाई दिया परन्तु उसके चेहरे पर प्रसन्नता का अभाव था। उन्होंने उस बालक से उदासी का कारण पूछा तो उसने अपनी पढ़ाई में कमजोरी और स्कूल में पीटने की घटना उन्हें बताई और यह बता कर रोने लगा। महात्माजी बोले, इतनी सी बात। उन्होंने कहा कि तू होशियार बालक बनेगा। उन्होंने अपने थैले से एक कागज और पैन निकाला और उस पर गायत्री मन्त्र लिखा। वहीं बैठकर उन्होंने उस बालक को वह मन्त्र याद कराया और उसके अर्थ भी बताये। उन्होंने बालक को कहा कि रोज सुबह जल्दी उठना और इस मन्त्र का जप करना। इसकी विधि भी उन्होंने उस बालक को बताई। स्वामीजी की बातों से बालक के मन में विश्वास जागृत हुआ। उसने स्वामीजी की बातों का पूरा पालन किया। प्रतिदिन प्रातःकाल जल्दी उठता, और गायत्री मन्त्र का जप करता था। समय पर स्कूल भी जाता था। कुछ दिनों बाद विद्यालय की अर्धवार्षिक परीक्षायें आईं। यह बालक सब विषयों में उत्तीर्ण हो गया। स्कूल के अध्यापकों को आश्चर्य हुआ तथा माता-पिता भी सन्तुष्ट हुये। यह बालक गायत्री मन्त्र का जप भी करता रहा। यथासमय वार्षिक परीक्षायें र्हुइं। यह बालक अपनी कक्षा में उत्तीर्ण प्रथम पांच विद्यार्थियों में आया। अध्यापक बालक के घर आये। माता-पिता को बोले कि आपके बालक ने कमाल कर दिया। माता-पिता भी प्रसन्न हुए। पिता ने बालक को उपहार में 10 रूपये का नोट दिया। बालक अति प्रसन्न हुआ। यह बालक ही बाद में आर्यसमाज के एक विख्यात विद्वान व नेता महात्मा आनन्द स्वामी बने। यह संस्मरण इन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है। गायत्री मन्त्र पर आपने पुस्तकंे भी लिखी हैं जिनमें एक का नाम “आनन्द गायत्री कथा” है और एक अन्य का नाम “गायत्री महामन्त्र” है। अन्य अनेक पुस्तकें भी आपने लिखी हैं जिन्हें लोग बहुत श्रद्धा से पढ़ते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने स्वामीजी को देखा भी है और उनकी अनेक पुस्तकें भी पढ़ी है। विद्वान वक्ता ने इस घटना से सभी श्रोताओं और विशेषकर आयोजन में बड़ी संख्या में उपस्थित बालकों को प्रेरणा ग्रहण करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि गायत्री मन्त्र ने केवल बच्चों के लिए है अपितु बड़े लोगों के लिए भी है। उन्होंने पूछा कि क्या अध्यापकों, डाक्टरों, विद्वानों, वकीलों, सरकारी अधिकारियों को बुद्धि नहीं चाहिये? अतः यह मन्त्र सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। उन्होंने कहा कि यदि 80 वर्ष का व्यक्ति भी गायत्री मन्त्र का जप करेगा तो उसका यश व आयु बढ़ेगी।
विद्वान वक्ता ने आचमन मन्त्र ‘ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयताम् स्वाहा’ का उल्लेख कर कहा कि इसमें यश व श्री की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है। खाने पीने के लिए हम संसार में नहीं आये हैं। मनुष्य योनि यश प्राप्त करने के लिए मिली है। यश मनुष्यों को शुभ कर्मों को करने से प्राप्त होते हैं। “श्री” धर्मपूर्वक कमाये गये धन को कहते हैं। ऐसे ही धन से परिवारिक की परवरिश करनी चाहिये। आचार्य उमेश चन्द कुलश्रेष्ठ ने आगे कहा कि यज्ञ का एक अंग दान है। यह अर्थ यज्ञ के तीन अर्थों देवपूजा, संगतिकरण एवं दान में से एक है। यज्ञ से बढ़कर कोई पूजा नहीं है। माता पहली देवता या देवी हैं, पिता दूसरा देवता है। बच्चे स्कूल जायें तो उन्हें माता-पिता के चरण स्पर्श कर जाना चाहिये। यज्ञ का एक अर्थ दान भी है तो दान से लाभ क्या है इस पर विचार करना चाहिये। वेद कहते हैं कि यदि आप सुखी रहना चाहते हैं तो यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ करने से सुखी रहोगे। दान और सुख का आपस में क्या संबंध है? वैदिक संस्कृति का आधार त्याग है। एक युवा ने हमें कहा कि उसने दान दिया तो उसे घाटा हो गया। उसके पास एक हजार रूपये थे, उसने पांच सौ रूपये दान कर दिये तो उसके पास पांच सौ रूपये ही रह गये। इस प्रकार से उसे पांच सौ रूपयों का घाटा हो गया। विद्वान वक्ता ने कहा कि हमने युवक को कहा कि आप इन्वेस्टमेन्ट या विनियोग को नहीं जानते। यह पांच सौ रूपयों का दान विनियोग है। उन्होंने कहा कि एक व्यापारी एक दुकान को पचास लाख रूपयों की पगड़ी देकर खरीदता है और उसमें पच्चीस लाख रूपये का सामान व्यापार करने के लिए रखता है। क्या यह पगड़ी का धन देना घाटा नहीं है? उन्होंने युवक से पूछा कि यह हानि है या लाभ? उन्होंने बताया कि इस धनराशि के बदले में उसे भविष्य में लाभ होगा। पचास लाख का विनियोग उसकी आय का आधार बनेगा। मधुवर्षी वक्ता ने कहा कि पीडि़तों की सेवा एवं वेद प्रचार कार्य में किया गया व्यय परमात्मा के बैंक में जमा होता है। अब युवक को समझाने का कार्य कठिन हो गया। युवक ने पूछा कि धरती के बैंक से जरूरत पड़ने पर पैसे निकल जाते हैं, परमात्मा के बैंक से पैसे किस प्रकार से निकालेंगे? वक्ता महोदय ने कहा कि पैसा निकालने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। उन्होंने कहा कि जब आवश्यकता होगी तो परमात्मा हमारी आवश्यकता की पूर्ति करेगा व धन देगा। विद्वान वक्ता ने कहा कि परमात्मा असंख्य आंखों व हाथों वाला है। जब हमें जरूरत होगी तब वह हमारा धन ब्याज व सूद सहित देगा। उन्होंने कहा कि जो संसार में है वह वेद में है और जो वेद में है वह संसार में है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने एक कथा के माध्यम से किया। उन्होंने कहा कि एक सेठ का एक लड़का था। उसका विवाह किया गया। साल दो साल बाद उसकी पत्नी गर्भवती हुई तो सेठ जी ने एक नर्सिंग होम बुक करा दिया। प्रसव के दिन सेठ जी ने फोन किया तो डाक्टर ने कहा कि खुशखबरी है। आप एक पोते के दादा बने हैं। उसने उन्हें बधाई दी। वक्ता महोदय ने कहा कि यह जो सन्तान संसार में अभी अभी आई है, यह जन्म के साथ ही सेठ जी व अपने पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी बन गई। हमने युवक से पूछा कि क्या इसने पैदा होते ही कोई काम किया जो यह धनवान बन गया। इसे अभी रोना तक तो ठीक से आता नहीं है। माता-पिता और अपने दादा को भी पहचानता नहीं है? इस पर भी करोड़ों का वारिस बन गया है। फैक्ट्रियों का मालिक बन गया है। प्रवचनकत्र्ता महोदय ने कहा कि हमने युवक को बताया कि यह वह जीवात्मा है कि जो कि पूर्व जन्म में पीडि़तों की सेवा करता था, अच्छे कार्यों में दान दिया करता था। उस दान रूपी जमा का ही यह परिणाम या फल है। उन्होने कहा कि यह वही जीवात्मा है जिसका पैसा परमात्मा के बैंक में जमा था।
संसार में ऐसे भी लोग हैं जो झुग्गी व झोपडि़यों में जन्म लेते हैं। माता-पिता भी हैं परन्तु दूध पीने के लिए नहीं है। इस नवजात शिशु को मांग कर दूध पिलाना पड़ता है। वेद कहता है कि यह कौन सा जीवात्मा है? इसका उत्तर है कि यह वह जीवात्मा है जिसने पूर्व जन्म में किसी को पानी नहीं पिलाया, विद्वानों की मदद नहीं की, भूखों को रोटी नहीं खिलाई। वेद कहता है कि अकेला खाने वाला पाप खाता है। यह ऐसा ही जीवात्मा है जिसने पूर्व जन्म में कभी किसी की मदद नहीं की। उन्होंने कहा कि एक जगह खाने को नहीं है और एक जगह खाने के भण्डार भरे पड़े हैं। परमात्मा के बैंक में जमा करेंगे तभी इस जन्म में हमें धन मिलेगा। विद्वानवक्ता ने एक किसान की कथा सुनाई। वह नगर में आया। बैंक में एक लाइन लगी थी। लोगों को पैसे मिल रहे थे। यह भी लाइन में लग गया। नम्बर आया। कैशियर ने पासबुक मांगी, खाता संख्या पूछी। यह ग्रामीण किसान बोला कि मुझे नहीं पता यह क्या चीजें हैं। मुझे दूसरों की तरह पैसे दे दो। वह बैंक कर्मी बोला कि हम पैसे उन्हीं को देते हैं जिन्होंने पहले जमा किये होते हैं। आप भी जमा करोगे तो उसमें से ही हम आपको दे सकेंगे। वक्ता महोदय ने कहा कि परमात्मा का नियम है कि जमा करोगे तो मिलेगा। दान हमें इस जीवन तथा अगले जीवन की गारण्टी देता है। उन्होंने कहा कि जीवात्मा अनन्त की यात्रा पर है। मृत्यु के बाद भी जीवात्मा की यात्रा चलती रहती है। इसके जमा किये हुए में से ही परमात्मा इसे देगा। परमात्मा फोकट में किसी को कुछ नहीं देता। जमा करने पर ही परमात्मा देता है। वेद कहता है कि परमात्मा दानशीलों पर धन की वर्षा करते हैं। अदानशील या कंजूस लोगों पर परमात्मा धन की वर्षा नहीं करते। आचार्य उमेश चन्द कुलश्रेष्ठ जी ने गरीबों व भूखें लोगों का उदाहरण देते हुए कहा कि ऐसे ऐसे लोग भी हैं जो झूठे पत्तलों को चाटकर अपना पेट भरते हैं। यह सब कर्मफल का खेल है।
आचार्य उमेश चन्द ने कहा कि दान न देने वाला यज्ञ भी नहीं कर सकता। इसलिए कि यज्ञ में आहुतियों व गोधृत आदि पर धन व्यय होता है और समय भी लगता है। कंजूस व्यक्ति भी यज्ञ नहीं कर सकता। विद्वान वक्ता ने यज्ञ का महत्व बताते हुए कहा कि जो लोग यज्ञ करते हैं उनके द्वारा दी गई आहुतियां इस जन्म व परजन्म में ईश्वर के द्वारा कई गुणा अधिक हमारे लिए लाभप्रद होती है। विद्वान वक्ता ने स्पष्ट किया कि परमात्मा यज्ञ में डाली जाने वाली गोदृग्ध की आहुति से कहीं अधिक धन व साधन हमें प्रदान करते हैं। आज के अरब पति व धनाड्य लोगों को देखते हैं तो यह अनुमान होता है कि यह लोग अपने पिछले जन्मों में पीडि़तो की सेवा करने के साथ दान करते आ रहे हैं। एक प्रश्नकर्ता ने आचार्य जी से प्रश्न किया कि यदि दान देने पर भी हमारा कोई कर्म बिगड़ गया और जिस कारण हमें मनुष्य योनि न मिलकर पशु आदि कोई योनि मिली तब तो हमारा दान व्यर्थ सिद्ध होगा या नहीं? विद्वान वक्ता ने इसका उत्तर यह दिया कि मनुष्य योनि शुभ कर्मों को करने से मिलती है। माना कि ऐसे मनुष्य को कुत्ते की योनि मिली। उन्होंने कहा कि कुत्ते कई प्रकार के हैं। एक कुत्ता अमीरों के घरों में रहता है जहां उसे सभी प्रकार की सुविधायें मिलती हैं। एसी में रहता है और कारों में घूमता है। डाक्टर भी उसकी चिकित्सा में तत्पर रहते हैं। अच्छा भोजन करता है। दूसरा कुत्ता वह है जिसका न भोजन, न रहना और न अन्य कोई सुविधा उसे मिलती है। यह अन्तर पूर्व जन्म के दान व अदान के कारण ही है। उन्होंने घोडे़ का उदाहरण भी लिया और कहा कि एक घोड़ा राष्ट्रपति भवन में रहता है और एक तांगे में जीवन बिताता है। दोनों जीवनों में भारी अन्तर है जो पूर्व जन्म के कर्मों पर आधारित है। आचार्य उमेश जी ने कहा कि किया हुआ दान बेकार कभी नहीं जाता। दान का भुगतान परमात्मा अवश्य करते हैं। वेद कहता है कि उस जीवात्मा को देखों जो अनन्त यात्रा पर है। जीवात्मा की यात्रा तब समाप्त होगी जब उसे मोक्ष मिलेगा। वेद गारण्टी देते हैं कि दान देने वालों को जन्म जन्मान्तर में सुख प्राप्त होगा। उन्होंने कहा कि वेद विद्या के प्रचार व प्रसार के लिए दिया गया दान श्रेष्ठ दान है। वेदों के प्रचार के लिए दिया गया दान मनुष्य को अपने पैरों पर खड़ा करता है और दूसरों की समस्याओं को भी सुलझाता है। वेद विद्या के लिये दिये गये दान से अज्ञान मिटता है।
आचार्य उमेश चन्द जी ने कहा कि दान का ही एक परिणाम आज के हमारे स्वामी रामदेव जी हैं। उन्होंने गुरूकुल कालवा का उदाहरण देकर बताया कि अनेक लोगों के दान से यह गुरूकुल बना और चलता है। इसी गुरूकुल की देन स्वामी रामदेव हैं। यदि लोग दान न देते तो गुरूकुल न बनता व चलता और न स्वामी रामदेव हमें मिलते। उन्होंने बताया कि स्वामी रामदेव जी ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि यदि वह गुरूकुल कालवां में न पढ़ते तो कहीं भैंस चरा रहे होते। उन्होंने यह भी कहा कि इसका पुण्य उन सभी लोगों को मिलेगा जिन्होंने गुरूकुल खोला, उसे चलाया और इसके लिए दान दिया। वक्ता महोदय ने स्वामी दयानन्द जी के स्वामी विरजानन्द जी से मथुरा में वेदाध्ययन का उदाहरण देते हुए कहा कि स्वामी दयानन्द को पढ़ाने की स्वामी विरजानन्द जी ने यह शर्त लगाई थी कि भोजन की व्यवस्था कर सको, तो पढ़ायेंगे। कई दिनों के प्रयत्न से स्वामी दयानन्द को मथुरा के जोशी अमरनाथ मिले जिन्होंने उन्हें भोजन की समस्या से सर्वथा मुक्त कर दिया। यदि वह न मिलते तो कहा नहीं जा सकता कि देश व समाज को स्वामी दयानन्द मिल पाते या नहीं? स्वामी दयानन्द के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका उनको अन्न वा भोजन के दाता श्री अमरनाथ जोशी कीे है और उन दानियों की भी है जिन्होंने स्वामी विरजानन्द जी को दान देकर उनकी पाठशाला को खुलवाया व उसके संचालन में सहायता की। विद्वान वक्ता ने स्वामी दयानन्द की देश, समाज व विश्व को योगदान की श्रद्धापूर्वक शब्दों में चर्चा भी की। उन्होंने इन सब उपलब्धियों को दान की महिमा बताया और कहा कि संगतिकरण शुभ कर्मों में सहयोग करने को कहते हैं। संगतिकरण यज्ञ ही है। दान का विशेष महत्व है। दान से धन पवित्र होता है। आपने कहा कि दान प्रकृति का सहज धर्म है। मनुष्य दान देने में व्यर्थ संकोच करता व डरता है। एक दिन तो उसे अपना सब कुछ छोड़ना ही पड़ेगा। मान लीजिए मेरे पास अनापशनाप धन है, मैं दान नहीं करता हूं, एक दिन मेरी मृत्यु अवश्य होगी तो सभी धन यहां पड़ा रह जायेगा। विद्वान वक्ता ने वेद के शब्दों में कहा कि दान देकर अपने हाथों व धन को पवित्र करो। आप जो दान इस जन्म में देंगे वह आपको अगले जन्म में मिलेगा। पीडि़तो की सेवा में अपने धन को लगाओ। यह दिया हुआ धन आपको अगले जन्मों में कई गुणा बढ़ कर मिलेगा। इसके साथ ही विद्वान वक्ता ने अपनी वाणी को विराम दिया।
प्रवचन के बाद यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती ने यज्ञ के यजमानों को वैदिक रीति से आशीर्वाद दिया। शान्ति पाठ के साथ आज दूसरे दिन के उत्सव का प्रातःकालीन आयोजन सम्पन्न हुआ। न्यास के प्रधान श्री दर्शन कुमार अग्निहोत्री तथा मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा सहित देश भर से बड़ी संख्या में आये हुए स्त्री व पुरूष पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ आयोजन में उपस्थित थे।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा समाचार ! आचार्य उमेश चन्द जी के प्रवचन पढ़कर मन प्रसन्न हुआ. आभार !
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आचार्य श्री उमेश चंद कुलश्रेष्ठ जी का प्रवचन बहुत ही प्रभावशाली था। मैं उसे शब्द देने में उसके साथ पूरा न्याय नहीं कर पाया हूँ क्योंकि कुछ बातें छूट भी गई तथापि इससे मुझे भी प्रसन्नता एवं संतोष हुआ। आपका पुनः धन्यवाद। उनका आज १० मई का प्रचन भी अत्यंत प्रभावशाली था।