राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर की उत्कृष्ट शैव प्रतिमाएँ
अतीत काल से ही गोरखपुर का ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व रहा है. मध्ययुग के सुप्रसिद्ध संत गुरु गोरक्षनाथ के नाम पर इस स्थान का नाम गोरखपुर पड़ा है. प्रमाणस्वरूप यहाँ का लोकविश्रुत गोरखनाथ मन्दिर मात्र उत्तर प्रदेश में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत के हिन्दुओं के ह्रदय में पवित्र आस्था एवं श्रध्दा का केंद्र है. इस पावन धरती पर उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग के सहयोग से वित्तीय वर्ष १९८६-८७ ईसवी में एक क्षेत्रीय संग्रहालय की स्थापना हुई जिसे राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर के नाम से जाना जाता है. गौतम बुद्ध की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि होने तथा इस अंचल से बौद्ध धर्म सम्बन्धी पुरासामग्री प्राप्त होने के कारण ही इस संग्रहालय का नाम राजकीय बौद्ध संग्रहालय पड़ा जो वर्तमान में रामगढ ताल परियोजना क्षेत्र में अपने विशालकाय भवन में स्थापित है.
उक्त संग्रहालय में वर्तमान में लगभग तीन हजार कलाकृतियों का संग्रह है जिनमे मृण्मूर्तियाँ, सिक्के व मुद्राएँ, पांडुलिपियाँ, धातु मूर्तियाँ, पाषाण मूर्तियाँ तथा अन्य विविध पुरातात्विक सामग्रियां प्रमुख हैं. यहाँ पर ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी विविध प्रतिमाएँ यथा –सूर्य, कार्तिकेय, भैरव, महिषासुर मर्दिनी दुर्गा आदि प्रमुख हैं. इसके अतिरिक्त बौद्ध व जैन धर्म सम्बन्धी मूर्तियाँ भी संग्रहीत हैं. प्रस्तुत लेख में हम मात्र कार्तिकेय तथा भैरव की दो मूर्तियों का ही उल्लेख करेंगे जो प्रतिमा विज्ञानं की दृष्टि से अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं. ये प्रतिमाएँ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के निवासी श्री प्रभात टंडन के द्वारा क्रय के फलस्वरूप प्राप्त हुई हैं. इनका पृथक –पृथक वर्णन निम्नवत है –
[१]कार्तिकेय[accession no. ७९४/९२ ]
यह प्रतिमा पूर्व मध्यकाल [ लगभग ६०० -१२००ईसा पूर्व ] की है जिसका आकार ४४ ३१ सेंटीमीटर] है उक्त प्रतिमा भूरे –बलुए पत्थर से निर्मित है जो पत्थर की पटिया पर उकेरी गयी है. कलाकार ने कार्तिकेय को स्थानक मुद्रा में प्रदर्शित किया है. कार्तिकेय के शिरोभाग में शिखंडक [बालों को एक विशेष प्रकार से तीन गुच्छों में संवारकर सुसज्जित करना ] बना है. मुख के सामने का भाग खंडित है ;अर्थात प्रतिमा के आँख, नाक व मुख घिसे हुए हैं. वह अपने दोनों कानों में कुंडल धारण किये हुए है और गले में ग्रैवेयक [कंठा] पहने हुए है. /कार्तिकेय के बाँए हाथ में उसका प्रिय आयुध शक्ति [भाला] है जिसका शीर्ष भाग खंडित अवस्था में है, जबकि दाहिने हाथ से अपने वाहन मयूर को कुछ खिला रहा है. वह अपने दोनों हाथों में बाजूबंद पहने हुए है तथा उसका कटि-प्रदेश मेखला से सुसज्जित है.
पौराणिक साहित्य में कार्तिकेय को शिव का पुत्र कहा गया है. इसके अतिरिक्त कार्तिकेय को युद्ध का देवता भी माना जाता है. इस प्रकार यह प्रतिमा मूर्ति-विज्ञानं के समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है.
[२]भैरव शीर्ष [accession no. ७९३/९२ ]
उपर्युक्त प्रतिमा भी पूर्व मध्यकाल [लगभग ६००-१२००ईसवी ]की है जिसका आकार १९. ५ १२ सेंटीमीटर है. यह प्रतिमा भूरे –बलुए पत्थर से निर्मित है. भैरव के शीर्ष पर संभवतः मुकुट जैसा अंकन है जिसके ऊर्ध्वभाग में एक प्रेत का चित्रण किया गया है. कलाकार ने मुकुट के नीचे बालों को विशेष प्रकार से पीछे की ओर सँवारा है. भैरव का विशाल चेहरा अत्यंत भयानक बना हुआ है जो इस प्रतिमा का प्रमुख लक्षण माना जाता है. इसकी आँखें विशाल तथा उभरी हुई बनायी गयी हैं. नासिका का भाग घिस चुका है. देवता का मुख खुला हुआ है. इसकी मूँछें लम्बी तथा नोकदार हैं जो ऊपर को ऐंठी हुई प्रतीत होती हैं. भैरव की दाढ़ी सुसज्जित है जो दोनों कानों के निचले भाग को स्पर्श कर रही है. उक्त प्रतिमा का बांया कान सुरक्षित है जबकि दांया कान दुर्भाग्यवश खंडित हो चुका है. मुखमंडल के नीचे ग्रीवा के ऊर्ध्व भाग में दो गरारें बनी हुई हैं.
पौराणिक साहित्य में भैरव को शिव का एक रूप माना गया है. इसके अतिरिक्त भैरव काल के भी प्रतीक कहे गए हैं जिसके फलस्वरूप इनका नाम काल भैरव पड़ा| इस प्रकार उक्त प्रतिमा भी मूर्तिविज्ञान के समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है.
इसके अतिरिक्त इस संग्रहालय को अधिग्रहण तथा सर्वेक्षण के दौरान पूर्वांचल में देवरिया जिले के रुद्रपुर तहसील के अंतर्गत सहनकोट[शकुनकोट ] नामक ग्राम से भी मध्यकाल की हरिहर, उमा –महेश्वर, गौतम बुद्ध आदि की अनेक प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनका अत्यन्त ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व है. इस प्रकार यह संग्रहालय अपनी कलाकृतियों के संग्रह में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए प्रयत्नरत है. साथ ही भविष्य में भी अनेक दुर्लभ पुरातात्विक सामग्रियो के मिलने की प्रबल सम्भावना है जिनके माध्यम से शोधार्थियो एवं विद्वानों के अथक सहयोग द्वारा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश पड़ेगा तथा भारतीय जनमानस के ह्रदय में सांस्कृतिक धरोहर को सँजोने तथा उसे सुरक्षित रखने की भावना भी उत्पन्न होगी.
— वेद प्रताप सिंह
बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख !