गज़ल – खत्म है कहानी
यूँ तो चरागों से खेलकर रात गुजारी थी
पता पूछा जो रोशनी का तो मालूम न था
हर फितरत की तक़दीर से रूबरू थे हरदम
लिखा क्या है हाथों में मालूम न था
सिर्फ आईने की तस्वीर के शौक़ीन थे हम तो
उसमे चेहरा कैसे आया मालूम न था
मुस्कुराने से कोई हमें भी खुश समझ लेता
तू देखकर रो देगी ये मालूम न था
तिरछी नजरों से हमने भी तुझे मुड़ते हुए देखा
ये रुखसत ए अदा थी मालूम न था
यूँ तो तारे गिन गिन ही रातें गुजर रही थी
ये इन्तजार है तेरा मालूम न था
हमें इकरार ए मोहब्बत में यकीं न था कभी
तू इन्तजार करेगी मालूम न था
हम दास्ताँ बन चुके थे किसी किताब के पन्ने की
अब खत्म है कहानी मालूम न था
— सचिन परदेशी ‘सचसाज’
ग़ज़ल नुमा बढ़िया कविता !
धन्यवाद सिंघल साहब ! एवं इस कद्रदानी के लिए शतश: आभार !