राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर की उत्कृष्ट सूर्य–प्रतिमा
ऋग्वैदिक कालीन देवताओं में सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान था. उस काल में आर्यों ने सूर्य से सम्बन्धित अनेक देवताओं की कल्पना कर ली थी. इनमें सविता, पूषण, मित्र, अर्यमन और विष्णु प्रमुख हैं. इस प्रकार वैदिक काल से ही सूर्योपासना का उल्लेख स्पष्ट रूपेण मिलने लगता है. शनैः-शनैः यह परंपरा सम्पूर्ण भारत में विकसित होती गयी और कालान्तर में सूर्योपासना के निमित्त अनेक मंदिरों तथा मूर्तियों का निर्माण होने लगा.
जैसा कि हम जानते है कि सूर्य –प्रतिमा का प्राचीनतम उदाहरण पटना से प्राप्त एक मौर्यकालीन ठीकरा है जिस पर वे चार अश्वों से जुते हुए रथ पर सवार हैं;उनके साथ सारथी अरुण भी प्रदर्शित किये गये हैं| बोधगया से प्राप्त एक स्तम्भ पर भी सूर्य अंकित किये गये हैं|सूर्य की कुषाणकालीन प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है जिसमें उनके एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में कमल का गुच्छा है. इसमें उनके वाहन के रूप में दो अश्व प्रदर्शित किये गये हैं. वस्तुतः मथुरा सूर्योपासना के ईरानी परंपरा का महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा. इसी प्रकार गुप्तकाल में भी सूर्य-प्रतिमाएँ निर्मित हुईं तथा अश्वों की संख्या दो से बढ़कर चार तक हो गयी. इस युग में विदेशी एवं भारतीय तत्वों के मिश्रण से सूर्य प्रतिमा –निर्माण का नया स्वरुप विकसित हुआ. तदनन्तर पूर्व –मध्ययुग में देश के अनेक भागों में तत्कालीन शासकों ने सूर्य –मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें गर्भगृह के अंतर्गत प्रधान देवता के रूप में सूर्य –प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया जाता था.
प्रस्तुत लेख में इस संग्रहालय में सुरक्षित एक उत्कृष्ट सूर्य –प्रतिमा[संग्रहालय सूचीकरण संख्या ८८९/९३ ]का विवरण निरुपित किया गया है जो ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. वर्ष १९९३में यह प्रतिमा पुरावशेष विक्रेता कुमारी नीहारिका टंडन से क्रय के फलस्वरूप संग्रहालय को प्राप्त हुई. इसका आकार ३४x३२ सेंटीमीटर है और विन्ध्य –क्षेत्र के भूरे –बलुए पत्थर से निर्मित है. उक्त प्रतिमा का प्राप्ति –स्थल वाराणसी ज़नपद के पाँचों पंडवा, शिवपुर नामक स्थान है. विवेच्य पुरावशेष का प्रतिमाशास्त्रीय स्वरुप निम्नवत है –
वर्तमान में उक्त आवक्ष प्रतिमा का अधोभाग दुर्भाग्यवश खंडित हो चुका है जिससे यह प्रतीत होता है कि प्रतिमा पूर्व में अपने स्थानक रूप में रही होगी. सूर्य के सिर पर किरीट मुकुट बना हुआ है जो अलंकरणयुक्त है. देवता के उभय नेत्र पूर्णोन्मीलित प्रदर्शित हैं|नासिका का अग्रभाग कुछ घिसा हुआ है. सूर्य अपने दोनोँ कानों में मकरकुंडल धारण किये हुए हैं और उनके मुख पर शांति का भाव प्रदर्शित है. यह अपने दोनोँ हाथों को कंधे तक उठाये हुए हैं और प्रत्येक हाथ में पूर्ण विकसित सनाल कमल –पुष्प धारण किये हुए हैं. दोनोँ हाथों में कंकण सुशोभित है जो बहुत घिस चुका है. देवता अपनी ग्रीवा में अलंकृत ग्रैवेयक पहने हुए है तथा उनके बाएँ कन्धे पर यज्ञोपवीत है. उक्त प्रतिमा का मुखमंडल अंडाकार पद्म –प्रभामंडल से सुशोभित है. इस प्रकार शैलीगत आधार पर इस प्रतिमा का काल लगभग आठवीं शती ईसवी अनुमानित किया गया है.
उक्त परिप्रेक्ष्य में यह भी अवलोकनीय है कि सूर्य –प्रतिमा के निर्माण का प्राचीनतम उल्लेख वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ वृहत्संहिता में किया है. इसके आधार पर सूर्य को उत्तरी वेश-भूषा [उदीच्य वेश]में दिखाने का आदेश दिया गया है. इस वेश के अनुसार वक्षस्थल से पैर तक उनका शरीर ढका रहता है. वे सिर पर मुकुट धारण करते हैं और हाथों में दो कमल –पुष्प के डंठल को पकड़े रहते हैं. उनके कानों में कुंडल तथा गले में हार रहता है. कमर में वियंग सहित उनका मुख एक आवरण से ढका रहता है. अस्तु, उक्त प्रतिमा अपनी शैलीगत लक्षणों के अतिरिक्त साहित्यिक लक्षणों से भी पर्याप्त साम्य रखती है.
आलोच्य प्रतिमा से मिलती-जुलती एक अन्य सूर्य –प्रतिमा का उल्लेख डा ० नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी ने किया है जो राज्य संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित है. यह प्रतिमा भूरे –बलुए पत्थर से निर्मित है. इस प्रतिमा में भी देवता के सिर पर मुकुट तथा उसके पीछे अंडाकार पद्मप्रभामंडल प्रदर्शित किया गया है. साथ ही, इसमें भी हाथों में सनाल कमल प्रदर्शित है. दुर्भाग्यवश उक्त प्रतिमा का बांया हाथ खंडित हो चुका है. शैलीगत आधार पर यह प्रतिमा लगभग नवीं –दसवीं शताब्दी की है.
विवेच्य सूर्य –प्रतिमा के सम्बन्ध में एक ध्यातव्य बात यह भी है कि उक्त प्रतिमा का प्राप्ति –स्थल वाराणसी ज़नपद रहा है. आठवी –नवीं शताब्दी में वाराणसी प्रतिहार शासकों के साम्राज्य का एक अभिन्न अंग था. अतएव उक्त सूर्य –प्रतिमा प्रतिहारकालीन मूर्तिकला का एक सुन्दर एवं श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है.
___ वेद प्रताप सिंह
बहुत अच्छा और गहरी जानकारी से भरा लेख.