इंसानियत
अरे सुनीता तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई? अभी परसो ही तो गांव का बोलकर गई थी कि दस दिन नही आऊंगी माता रानी को चुंदङी चढानी है ब्राह्मण भोज करवाना है।फिर आज कैसे आ गई?
सुनीता मेरी कामवाली दो दिन पहले ही मुझसे दस दिन की छुट्टी और मेरे पास अपने जमा किये हुऐ पाँच हजार रुपये लेकर गांव का बोल के गई थी और आज उसे यूं सामने देख मैँ आश्चर्यचकित हो गई और सवाल पूछ डाले?
वो क्या है ना भाभी मैं गांव ही जा रही थी मगर पहली रात मेरी बाजूवाली अम्मा की तबियत बहुत खराब हो गई एकदम से उसका पूरा शरीर अकङ गया ।कोई तैयार नही हुआ उसे अस्पताल ले जाने के लिये ।मुझे बहुत दया आई उसे सरकारी दवाखाने ले गई मगर वहां किसी डाक्टर को पङी नही थी उस बुड्ढी को देखने भर तक की तो मुझे उसे पास वाले निजी दवाखाने ले जाना पङा वहां पैसे जमा कराने पङे और कुछ की दवाई फल वगैरह ले आई।कल भी पूरा दिन वही थी। रात को उसे छुट्टी दी तो घर ले आई ।
उसका कोई नही है संसार में हम आस पङोस वाले ही उसे खाने पहनने को कुछ दे देते है । और माता की चुनरी का क्या है अभी नही तो दो तीन साल बाद ही सही चढा आऊंगी।शायद माता रानी इस रुप में मेरी भेंट चाह रही हो यही सोच कर खुद को मना ली।
उसके इस बेबाक जवाब पर मैं उसका मूहं ही देखती रही।एक एक पैसा जोङकर उसने सपना देखा था गांव में माता को भव्य रुप से चुंदङी चढाने का और पांच ब्राह्मणों को भोज करवाने का ।उसके लिये जाने कबसे पैसे इकट्ठे कर रही थी मेरे पास वो।
उसके इस मन की सुंदरता को पहचान में उसे अपलक निहारे जा रही थी और वो इन सब से बेफिक्र वह अपने काम में व्यस्त हो गई।
हम सामाजिक दायित्वों का दावा करने वाले जेब से एक रूपया खर्च करने से पहले सौ बार सोचते है और इस छोटे रुप से मेहनत मजदूरी करने वाली ने बेहिचक अपनी पूंजी वहां न्योछावर कर दी जहां से वापस आने की कोई उम्मीद ही नही। शायद इसे ही इंसानियत कहते है।
— एकता सारदा
सूरत (गुजरात)
हार्दिक बधाई आदरणीया एकता सारदा जी, सही कहा आप ने हमारे पास कहाँ फुरसत है और कहाँ आमद है कि माता जी की चुंदडी के लिए मन को इकठ्ठा करें और खर्च करें……शायद हम आधुनिक हों गए हैं और माता का दर्शन करने जातें हैं पर भावनाओं का दर्शन कहीं और ही होता है……वाह वाह महोदया,,,,,,,
शुक्रिया
बहुत मार्मिक लघुकथा !
आभार
एकता जी , कहानी दिल को छू गई , यही तो इन्सानिअत है .
शुक्रिया