मै प्रकृति होना चाहती हूं
मैं बसंत में
आश्वासन भरा पीला फूल बन
खिलाना चाहती हूँ
पतझड़ में
ललछौंह पत्तियों सी बिखर जाना चाहती हूँ
ग्रीष्म की
तिखी धूप में गुलमोहर बन
दहकना चाहती हूँ
चीखती कोयल के लिये
मैं आम , पीपल बरगद नीम के पेड़ में
तब्दिल होना चाहती हूँ
मैं चाहती हूँ पानी की बूंद बन जाना
और झूम झूम बरसना बरसात में
हरी घास बनकर पूरी पृथ्वी पर
हरियाली फैलाना चाहती हूं
शरद में हरसिंंगार की महक बन
हवा में घुलना चाहती हूं
मै प्रकृति की विलुप्त होते अवयवों को
अक्षुण्ण रखना चाहती हूं
मै प्रकृति का सभी रंग समेट
इंद्र्धनुष का प्रतिरूप बन आसमान में
टंगना चाहती हूं
आपाद मस्तक मै प्रकृति होना चाहती हूं !!
भावना सिन्हा
अतीव सुंदर सृजन
बहुत सुन्दर कविता, डॉ साहिबा ! पढ़कर मन प्रसन्न हो गया !
बहन, नारी तो स्वयंमेव प्रकृति रूपा है। अतः आपकी आकांक्षा उचित है। परन्तु, कोयल चीखती नहीं, गाती है, शब्द तीखा है, तिखा नहीं और इंद्र धनुष आसमान में टंगता नहीं संवरता है। कविता के भाव बहुत सुन्दर हैं।
बहुत ही बढ़िया व ज़मीन से जुडी रचना भावना जी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए प्रकृति के प्रतीकों के साथ, वाह और वाह
अतीव सुंदर सृजन ,