सावधान! षड्यंत्र सियासी!
किन्हीं क्षणों में कोई काँटा
हो जाता है जब संन्यासी
सावधान! षड्यंत्र सियासी!
झेलें दुःख की मार निरंतर,
रोज़ व्यवस्था की नदियों में
बहता भ्रष्टाचार निरंतर,
सच्चाई के वृक्ष खड़े हैं
तट पर जड़ें जमाये प्यासी!
रोज़ ग़रीबी मुस्काती है,
भूख पेट की अंतडि़यों में
स्वयं घोंसला बन जाती है,
दिन भर थका हुआ इक पंछी
रात-रात भर चुगे उदासी!
हम कैसे युग के निर्माता!
चाहे आँसू हों या चीख़ें
हम पर असर नहीं हो पाता,
हम भीतर से सूख चुके हैं
धरती गीली नहीं ज़रा-सी!
रोज़-रोज़ आपस के झगड़े
कोई सिर की जगह रख गया
क्रूर इरादों वाले जबड़े
दो आँखों की जगह भटकते
अभिशापित सपने वनवासी!
तृप्त नहीं, हम हैं प्यासों में
हम किरणों के पदचापों की
झूठी आहट एहसासों में
जीवित रख कर,गहन तिमिर में
साँसें लेने केे अभ्यासी!
— कृष्ण सुकुमार
अच्छी कविता !
बहुत अच्छी कविता .