ग़ज़ल : मिले तो जनाब…
बाद मुद्दत के मिले, मिले तो ज़नाब,
गुन्चाये-दिल खिले, खिले तो ज़नाब |
तमन्नाएं, आरजू, चाहतें पूरी हुईं,
अरमां-दिले निकले, निकले तो ज़नाब |
खुदा की मेहरबानियों की ऐसी बरसात हुई,
सिलसिले मिलने के हुए, हुए तो ज़नाब |
इक नए बहाने से आपने बुलाया हमें,
बाद मुद्दत के खुले, खुले तो ज़नाब |
कहते थे भूल जाना, भूल जायेंगे हम भी,
भूले भी खूब, खूब याद आये तो ज़नाब |
अब न वो जोशो-जुनूं न ख्वाहिशें रहीं,
आना न था आये मिले, मिले तो ज़नाब |
आशिकी की ये डोर भी कैसी है श्याम’
न याद कर पायें न भूल पायें तो ज़नाब ||
—-डा श्याम गुप्त
धन्यवाद –सही कहा हिन्दी में भी बहुमूल्य गज़लें लिखी -कही जा रही हैं
बढ़िया !
धन्यवाद विजय जी
ग़ज़ल उर्दू कविता की एक विधा है और इसके लिये इस भाषा का ज्ञान आवश्यक है। आज कल लोग हिन्दी में भी ग़ज़लें लिखते हैं। हिन्दी आसान भाषा है । इसे आजमा कर देखें ।
सही कहा पांडे जी —-मैं गज़लें हिन्दी उर्दू सम्मिश्र भाषा में लिखता हूँ …उर्दू..हिन्दी-फारसी के सम्मिश्रण से बनी भारतीय भाषा है अतः हमें इसे निरंतर हिन्दी की ओर झुकाव करके हिन्दी में विलय करने का प्रयास करना चाहिए … इसमें उर्दू के विशिष्ट भाषा ज्ञान की कोइ आवश्यकता नहीं है …यही मेरा उद्देश्य है …