ग़ज़ल
मेरे ज़ख्मों को चोट लगती है हवा मत दो
अब मुझे मौत ही दो, और सजा मत दो
तुम मुझे भूल ही जाओ तो अच्छा होगा
मेरे दिल को मेरे यार अब अजां मत दो
मैं मुतमइन हूँ छोटी सी अपनी दुनिया में
तुम मेरे पास न आओ और फ़ज़ा मत दो
गर सुकून तुमको मिले तर्क-तआल्लुक कर लो
पर शबे-ग़म में ‘अरुण’ मेरा अब मज़ा मत लो.
— अरुण निषाद , सुलतानपुर
दूसरे शेर में काफ़िया ग़लत है और मतला (ग़ज़ल की प्रथम दो पंक्तियाँ) और मकता (आखिरी पंक्तियाँ जिसमें शायर का तख़ल्लुस (उपनाम) है) में इत्तेफ़ाक अर्थात मेल नहीं है। यहाँ रदीफ बदल गयी है।
koshish jari raegi………..isi tarah……….margdrshan mila to………pranam……………
अच्छी ग़ज़ल. वैसे परंपरा के अनुसार ग़ज़ल में कम से कम 5 शेर अवश्य होने चाहिए.
koshish jari raegi…………pranam……………