यतीम हूं ना…!
खाली पेट सोता हूं,
यतीम हूं ना….!
सूखे आँसू रोता हूं,
यतीम हूं ना….!
स्कूल की घण्टी सुन सहम जाता हूं,
बाहर से ही शोरगुल सुन पाता हूं,
चाहता हूं मैं भी कि पढ़ पाऊँ,
पायलट बन आसमान में चढ़ जाऊँ,
गैराज में गाड़ी धोता हूं,
यतीम हूं ना….!
सपने पुराने गुल्लक में पिरोता हूं,
यतीम हूं ना….!
मैं अकेला, मेरी राह अकेली,
जीवन मेरा एक अबूझ पहेली,
जमाने के दंश सह लेता हूं,
गैराज के पानी में बह लेता हूं,
बिसरे दु:ख अकेला ढोता हूं,
यतीम हूं ना….!
सपने पुराने गुल्लक में पिरोता हूं,
यतीम हूं ना….!
काश कि बस्ता मेरी भी पीठ पर हो,
मेरी जगह भी स्कूल बस की सीट पर हो,
चाहता हूं कि दरवाजे के अंदर चला जाऊँ,
क्या होता है पढ़ना समझ पाऊँ,
यतीमी ने ना घर दिया,
ना स्कूल,
मिली तो कोरी गैराज की धूल…
ना माँ दी- ना बाप,
शायद इतने में ही समझ गए होंगे आप..!
हाए मजबूरी ! अनाथ बच्चों को बहुत तकलीफें सहनी पड़ी हैं .
जी गुरमेलसिंहजी! विडंबना ही है कि भारत भलें ही विकास की ऊंचाइयां छू लें, लेकिन यह अनाथ बालकों का दंश हमेशा उसकी संकीर्ण और पाश्चात्यता को प्रदर्शित करता रहेगा..!
बहुत मार्मिक कविता ! अनाथ बच्चों की पीड़ा बहुत बड़ी होती है.
सर्वप्रथम धन्यवाद बड़े भाई साहब! यह एक मार्मिक विषय है जिस पर केवल अमल करने के बजाय हमें ठोस कदम उठाने आवश्यक है..!