विचार-विस्तार…!!
तुम्हारे जो विचार है,
अरूपित-निराकार है,
इनको गढ़ लेने दो,
विहारों में चढ़ लेने दो..
कुत्सित कुवाक्य है जो अटल,
नकार रहा है जिनको पटल,
उन्हें मिट लेने दो,
लेखनी से पिट लेने दो..
रिवाजी चलन बिखरता है,
आजकल खुरों में निखरता है,
शब्द बाण हर लेने दो,
निराहार कर लेने दो..
तुम्हारे जो विचार है,
अरूपित-निराकार है,
इनको गढ़ लेने दो,
विहारों में चढ़ लेने दो..
पुलत्स्य का जो वंश था,
वेद-पुराणों से प्रंश था,
रावण की दुर्भावुकता से झुलस गया,
अहम् के वश बवंडर में फँस गया,
वैदिकता को पुन: फिर लेने दो,
संस्कृति के वश में घिर लेने दो…
नारियों को बढ़ लेने दो,
विहारों में चढ़ लेने दो..
तुम्हारे जो विचार है,
अरूपित-निराकार है,
इनको गढ़ लेने दो,
विहारों में चढ़ लेने दो..
वाह वाह !
धन्यवाद….!!!!