कविता

मन है अपना

सौभाग्य से मिला है जीवन
करो न इसे व्यर्थ निलाम
ऊँचाईयों पर चढ़ने के लिए
बना लो अपना भी मकाम

मन नहीं करता जी नहीं लगता
ऐसी बातें कभी न करना
दुनिया की सब चीज पराई
लेकिन ये हमारा मन है अपना

मेरा मन है मेरा नहीं तो
किसकी कहना मानेगा
छोड़ दें यदि लगाम इसकी
मिट्टी में तुरंत मिला देगा

मन लगाकर काम करने से
मेहनत भी लगता मनोरंजन
पत्थर पिघल मोम बन जाता
तालाब सा दिखता समंदर

मन से सेवा मन से पूजा
मन से किसी से प्यार करो
नियत में कभी खोट न आये
हँस के हर राह पार करो

भूले भटके राही तेरे
कदमों से मंजिल पायेंगे
तेरी दृढ़ लगन देखकर
तूफाँ भी शाहिल बतायेंगे

महत्वकांक्षी के जीवन में
कभी आता नहीं अंधेरा
कामयाबी- सफलताओं का
होता है सदा बसेरा

दिल दिमाग लगाकर जब
लक्ष्य की ओर बढ़ जाओगे
हर विघ्न बाधा से लड़कर
मंजिल पर तुम चढ़ जाओगे

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

One thought on “मन है अपना

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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